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२.
हे छात्रो ! तुम आगे आनेवाले वंशके चलानेवाले हो और तुमहीपर हिन्दुस्तानकी आगामी उन्नति और उच्च दशाका निर्भर है । लड़कपनमें जैसी तुम्हारी बान पड़ जाएगी, वैसी ही बान जवानी और बुढ़ापे में होंगी । तुम्हें चाहिये कि अपनी बान डालने में नियम और रीतिसे काम लो और सज्जन और धार्मिक बनना सीखो । इस संसार में और विशेष करके युवा अवस्था में हमारा शील पूरा २ सुधरा हुआ नहीं होता और हमारी बान परिवर्तनशील होकर बदलती रहती है उस समय हमारी प्रवृत्ति बुराई ग्रहण करनेकी ओर होती है । परन्तु तुम्हें यह बात जाननी अवश्य है कि आनन्द वा परम गुख सज्जनताईमें ही है । सुखी होनेके लिए हमारा अन्तःकरण शुद्ध और पवित्र होना चाहिये अर्थात् जब हमारा अन्तःकरण प्रसन्न और संतुष्ट होकर हमारे कामों को सराहता है तब ही परमसुख प्राप्त होता है । जिस मनुष्यकी वृत्ति सात्विक और धार्मिक है और जो अपना कृत्य भक्ति से श्रद्धापूर्वक करता है, उसका भीतरी आत्मा वा अन्तःकरण सर्वदा संतुष्ट रहता है । विपरीत इसके पापी मन, जो पछतावेके दुःख और कष्ट सहता रहता है, सदा बेचैन रहता है और कभी भी सुखी नहीं होता । फिर देखो कि आनन्द वा सुख चिरस्थायी और निरन्तर होना चाहिये न कि क्षणिक और थोड़े काल के लिए हो, ऐसा सुख पुण्य वा धर्मसे ही प्राप्त हो सकता है क्योंकि धर्म सदा स्थिर है और काल और दशा से बदल नहीं सकता । धार्मिक पुरुषका सुख बाह्य बातोंपर निर्भर नहीं होता, इस लिए प्रायः उसका सुख उससे पृथक् नही हो सकता अर्थात्