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प्रस्तावना |
4968-04
पाठक महाशय ! आज आपको हम एक ऐसा ग्रन्थरत्न भेंट करते हैं, जो कालकी कुटिलगतिसे बिलकुल अप्रसिद्ध और लुप्तप्राय हो गया था । इसके रचयिता सुप्रसिद्ध आध्यात्मिक श्री कुन्दकुन्दाचार्य हैं । कुन्दकुन्दस्वामीके बनाये हुए जो ८४ पाहुड़ (प्राभृतग्रन्थ) कहे जाते हैं और जिनमें से नाटकसमयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, रयणसार, षटपाहुड़आदि प्रसिद्ध हैं, उनमें इस वारस अणुबेक्खा ग्रन्थका नाम नहीं है । इससे यह भी अनुमान होता है कि. उक्त आचार्य महाराजके बनायेहुए पाहुड़ ग्रन्थोंके सिवाय और भी कई अन्य होंगे ।
इस अन्थका उद्धार हमने एक ऐसे हस्तलिखित गुटकेपर से किया है, जो अतिशय जीर्ण शीर्ण और प्राचीन है । यह गुटका बहुत ही कम होगा, तो लगभग चार सौ पांचसौ वर्षका लिखा हुआ होगा । इसपर संवत् १६३६ की लिखीहुई तो उसके एक स्वामीकी प्रशम्ति लिखी हुई है, जिसने कि किसी दूसरेसे लेकर उसपर अपना स्वामित्व स्थापन किया था । प्रायः प्रत्येक पत्रके चारों किनारे विशेष करके नीचेका किनारा झड़जानेमे अनेक अक्षर बिलकुल ही चले गये हैं । यदि यह ग्रन्थ कुछ दिनों और इसी दशा में पड़ा रहता और जैसा कि हम समझते हैं, अन्यत्र कहीं इसकी प्रति नहीं होगी, तो आश्चर्य नहीं कि, संसारसे अन्य अनेक ग्रन्थोंके समान इसका भी नामशेष हो जाता ।
भगवान् कुन्दकुन्दवामी वि० संवत् ४९ में नन्दिसंघके पांचवें