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जिसे मैं पहले नहीं समझा था कि, 'लेनेकी अपेक्षा देना बढ़ा लाभकारी और सुखदायक है ।"
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(ञ) संतोष ।
निस्संदेह बहुतसे मनुष्यों का यह विचार है कि संतोष केवल संकल्पमात्र है, और वस्तुतः कोई सत्य पदार्थ नहीं, क्योंकि वर्षों संतोषका पीछा किया फिर भी वह हाथ न आया ।
ऐसे भी मनुष्य हैं जिन्होंने रुपये के लिए सब कुछ खो दिया, इस आशासे कि अन्तमें हमें संतोष प्राप्त होगा, परन्तु जब उन्होंने अपने शेष जीवनको सुखसे व्यतीत करनेके लिए पर्याप्त धन इकट्ठा कर लिया तब भी उन्हें संतोष न आया, वरन पहले - से अधिक असंतोषी हो गए। उनका धन व सुवर्ण उनके लिए ऐसा हुआ जैसे कि प्यासे मनुष्यके लिए खारी जल - अर्थात् जितना अधिक धन हुआ उतनी ही उनकी प्यास वा धनोपार्जनकी कामना बढ़ती गई । और मनुष्योंने इसके विपरीत सम्पूर्ण धनका त्याग कर दिया, सामाजिक जीवनसे अलग होकर लोगोंसे मिलना जुलना छोड़ दिया, केवल धार्मिक रीतियोंमें प्रवृत्त होकर नियम और व्रत रखने लगे, और जप तप करने लगे, इस आशासे कि इसप्रकार से तो संतोष अवश्य मिलेगा; पर अन्तमें उन्होंने यह विदित कर लिया कि हमने भी ऐसी ही भूल की है जैसी कि धन इकट्ठा करनेवालोंने की थी ।
प्रश्न यह है कि संतोष कहां मिल मोल नहीं ले सकता, ढूंड़नेसे वह मिल नहीं
सकता है ? धन उसे सकता, जप तपसे