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सताई हुई आत्माएं मेरे यहां रहनेसे शान्ति पाती हैं, इस लिए मैं यहांसे पीछेको नहीं मुडूंगा और यही रहूंगा" ।
बाह री भक्ति और श्रद्धालुता ! इस निर्भय पुरुषार्थको धन्य है । इस आत्मत्याग इस निष्काम प्रेम और इस सच्चे पुरुषत्वकी कोई क्या महिमा वर्णन कर सकता है ।
उसी समय एक बड़ा भारी शब्द हुआ, अन्धेरा जाता रहा, चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश हो गया, न कहीं दुर्गन्ध है न कहीं कांटे हैं, हर्षमें मग्न होकर देवता राग गाने लगे और इन्द्र अपने दिव्य मित्रोंको साथ लिए हुए वहां आकर उपस्थित हो गया और शान्तिदायक शब्दों में कहने लगा, – “हे मृत्युंजय युधिष्ठिर ! यह नरकका दृश्य केवल भ्रम था, इसकी कोई सत्ता नहीं है । तुमने कुरुक्षेत्रकी रणभूमिमें अपनी इच्छा के विरुद्ध झूठ बोला था जिस कारण द्रोण मारा गया था । यह अचिरस्थायी नरकका दृश्य केवल तुमको उस थोड़े से झूठ बोलने के कारण देखना पड़ा । अब आप मंगल मनाइये, चलिये सच्चे खर्गमें ठहरिये जहां आपके सारे भाई अपने कर्मोंका सुख भोग रहे हैं" ।
इससे विदित हुआ कि नरक और स्वर्ग क्या हैं | जहां मनुप्यसम्बन्धी सहानुभूति प्रचुर कार्य करती है, वहां स्वर्ग होता है; जहां स्वार्थपरता होती है, वहां नरक रहता है । जो लोग बुरी बानको छोड़कर सबके लिए सहानुभूति रखते हैं, वे केवल आप ही स्वर्गमें नहीं जाते वरश्च स्वर्गमें दूसरोंको भी जगह देते हैं । और केवल आप ही मृत्युपर जयी नहीं होते वरच
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