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जिनधर्मका यह परमभक्त था। आदि-पुराणके कर्ता भगवान् जिनसेनाचार्य इसके गुरु थे। कहते हैं कि, महाराज कुमारपालके समयमें श्वेताम्बरियोंका जैसा अभ्युदय भीहेमचन्द्राचार्यके कारण हुआ था, महाराज अमोववर्षके समयमें उससे भी कहीं बढकर अभ्युदय दिगम्बरियोंके भगवजिनसेनाचार्यके प्रमावसे हुआ था।
मेघदूतकाव्यकर्ता कालिदासने इसी अमोघवर्षकी समामें जाकर अपने काव्यका गर्व किया था, जिसे दलित करनेके लिये भगवजिनमेनजीने पार्थाभ्युदयकाव्य बनाया था। यह काव्य ऐसा अपूर्व
और चमत्कारकारि बना है कि, इसे पढकर विधगिण भी वाह २ करने है । इसमें मेघदत काव्य पूगका पूरा वेष्टित है। कालिदास इसे सुनकर निष्प्रभ हो गया था।
इसप्रकार गठौर महागज अमोघवर्षके विषयमें दोनों बातें सिद्ध होती हैं, एक तो यह कि वे स्वयं विद्वान् और विद्वानोंका आदर करनेवाले थे. और दूसरे उन्होंने विवेकसे राज्य छोड़कर जिनदीक्षा ले ली थी। इसमे निश्चय होता है कि, प्रभोत्तरत्नमालाके कर्ता ये ही अमोघवर्ष थे। परन्तु इतना कहनेसे ही हमारे विद्वान् पाठक कदाचित् इस बातपर विश्वास कर सकेंगे। इस लिये एक अत्यन्त पुष्ट प्रमाण उनके सन्मुख उपस्थित किया जाता है । वह यह कि, ईम्ची सनकी म्यारहवीं शताब्दीके पूर्वाधर्म प्रश्नोत्तररत्नमालाका तिब्बती भाषामें एक अनुवाद हुआ है उसमें लिम्बा है कि, यह अन्य बडे राजा अमोपवर्षने संस्कृतमें बनाया था और हमारे (दिगम्बरजैन ) भंडारमें मिली हुई. पुस्तकोंमें भी यही लिम्बा हुआ है । इससे अमोलवर्ष दिगम्बर जैनधर्मका अनुयायी था और उसीन इस पुस्तकका निर्माण किया था, इसमें अब कोई सन्देह बाकी नहीं रहा है। धन्यवाद है उस तिब्बती अन्यकर्ताको जिसने एक विदेशी भाषामें अनुवादकरके भी मूल