________________
लेखोंको भली भांति हृदयस्थ करके उनके भाव और तात्पर्यका उत्तमता जतलाएँ तो अवश्य इन युवा पुरुषोंके मनपर हितकारी
और उत्तम प्रभाव पड़ेगा । ये ऊपर लिखे हुए दूषण भी कहीं २ पाए जाते हैं, पर बहुधा ये दूषण निर्मूल हैं । परन्तु हमें इन दूषणोंको योंही नहीं समझना चाहिये; विपरीत इसके हम सबको एक एक करके इन बातोंको सोचना चाहिये और अपना शील सुधारनेका यन्न करना चाहिये और धीरे २ ऐसा यत्न करना चाहिये कि हममें लेशमात्र भी दृषण न रहे । देखो जो लोग हमें हमारे दृषण बताते हैं उनको हमें अपना शत्रु नहीं जानना चाहिये वरञ्च उन्हें अपना हितषी, परम मित्र और नीतिशिक्षा करनेवाले जानना चाहिये । इस लिए हमें किसी बातको साधारण दृष्टिसे नहीं पढ़ना वा देखना चाहिये और उसको भुसपर नहीं लीपना चाहिये वरञ्च उसको ठीक २ विचारना और उसके गुण और दोषको समझना चाहिये । हमें चाहिये कि अपने में वश्यता, परिश्रम, अध्यवसाय, कालानुवर्तिता, अर्थशुचित्त्व और मत्यशीलताकी बान डालकर अपने छोटे भाई, बहन और बच्चों
और अपने पड़ौसी मित्र और महपाठियोंके साम्हने अपने आपको उत्तम आदर्श बनाकर दिखाएं; सबके साथ सुजनता और शिष्टाचारसे बर्ते; अपने बड़ोंका सम्मान करें और उनके उत्तम उपदेशको कान देकर सुनें और उसके अनुसार चलें; लज्जा और आत्मसम्मानको ग्रहण करें अर्थात् अवमानना और अभिमानितासे बचें । हमें अपने शीलमें शुद्ध और पवित्र होना चाहिये । हम यह तो जानते हैं कि बाह्य वस्तुओंमें पवित्रताका होना कैसा अवश्य है । यथा हम सदा पवित्र और निर्मल जल पीना, खच्छ और उज्वल