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वह करना चाहता है उसे करनेके लिये असमर्थ है । क्योंकि यदि किसी मनुष्यको अपने भाइयोंसे इतना गहरा प्रेम है कि वह उनके लिये कुछ बड़ा काम करना चाहता है, तो वह इस अपने प्रेमको सदा और प्रत्येक दशामें रहकर प्रकट कर सकता है।
सच पूछो तो बोझ थोड़ा ही थोड़ा करके इकट्ठा होता है और धीरे २ ही उसका भार बढ़ता जाता है । देखो ! विना विचारे काम करने, अन्धे अनुरागमें वार २ फँसने, अपवित्र विचारको हृदयमें स्थान देने, कठोर शब्द वा वचन बोलने, मूर्खताका काम बार २ करने और इसी प्रकार बहुतसे बुरे काम करनेका भार दुःसह और कष्टदायी हो जाता है । पहले पहल और कुछ काल तक तो यह भार प्रतीत नहीं होता, परन्तु यह भार दिन २ बढ़ता जाता है और कुछ कालके अनन्तर यह इकट्ठा भार बड़ा दुःसह और भारी प्रतीत होने लगता है जब कि हम अपने खार्थका फल चखते हैं और हमारा हृदय इस कष्टदायक जीवनसे दुःखी हो जाता है । इस समय मनुष्यको चाहिये कि अपनी दशापर मली भांति विचार करे और इस बोझको उतारने अर्थात् इस कष्टको निवारण करनेकी अच्छी रीति हूंड़े । और इस रीतिके ढूंडनेके अनन्तर वह प्रज्ञा, पवित्र और प्रेमको विदित कर लेगा जिससे वह भली भांति जीवन व्यतीत करेगा, सुखसे रहेगा और उत्तमताईसे बर्तेगा।
और इस कष्ट और भारको दूर करके फुर्तीसे काम करेगा और दिन रात आनन्द से बिताएगा।
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