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( २२ ) भी नहीं मिलेगा वरश्च वह अपने कामसे अलग कर दिया जायगा। परन्तु आध्यात्मिक वस्तुओंमें लोग वह श्रेय सम्पत्ति अर्थात् आध्यात्मिक वेतन मांगते हैं जो उन्होंने पहले नियत नहीं किया था, न जिसके लिए परिश्रम किया और न जिसके वे अधिकारी थे और यह नहीं समझते कि ऐसा करना हमारी मूर्खता या खार्थपरता है । कामके अनुसार ही वेतन मिलता है और प्रत्येक विचार और कर्मका ठीक २ बदला मिलता है यह जानकर ही ज्ञानी पुरुष सदा संतुष्ट और शान्त रहता है । वह जानता है कि मुझे अपने कियेका ही बुरा या भला फल मिलेगा। यह सर्वोत्तम नियम किसीका ऋण या अधिकार नहाँ रखता, जितना जिसका है वह अवश्य उसको मिलेगा । इस लिए प्रत्येक दशामें संतुष्ट रहना चाहिये, कष्ट और दुःखमें बुड़बुड़ना कदापि उचित नहीं, क्योंकि यह सब कुछ हमारी ही कमाईका फल है । जैसा किया वैसा पाया।
फिर यदि कोई मनुष्य सांसारिक धन सम्पत्ति इकट्ठी करके धनाढ्य बनना चाहता है तो उसे चाहिये कि विवेकसे व्यय करे और अपनी आयको इस प्रकार काममें लाए कि उससे पर्याप्त धन इकट्ठा कर ले और फिर इस धनको सोच समझकर किसी अच्छे काममें लगाए, इससे उसकी सांसारिक बुद्धि और सांसारिक धन दोनो बढ़ेगे । जो मनुष्य निकम्मा है और वृथा खर्च कर डालता है, वह कभी धनवान् नहीं बन सकता; वह तो अतिव्ययी और प्रभूतभक्ष्यपेयी है । इसी प्रकार जो आध्यात्मिक वस्तुओंसे भरपूर होना चाहता है, उसे भी विवेकसे काम करना चाहिये और अपनी मानसिक विभवसे ठीक २ काम लेना चाहिये । उसे