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(च) कठिनाइयों और संशयोंपर प्रबल होना । हम पहले बता चुके हैं कि किसी कामको प्रारम्भ करने से पहले आदिमें उसके करने की सारी बातें सोच लेनी चाहिये, और कोई कृत्य हो, चाहे छोटा चाहे बड़ा, उसे तन मन धनसे करना चाहिए । नित्यके छोटे २ कृत्योंके करने में कदापि असावधानी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इन्हीं कृत्योंको भली प्रकार और सोच समझकर करनेसे ही हमारा शील बनता है । अब हम यह बताना चाहते हैं, कि हमें कठिनाइयों और संशयोंका सामना करना चाहिये ।
सच पूछो तो कठिनाइयां अज्ञान और दुर्बलतासे उत्पन्न होती हैं, और उनसे हमें ज्ञान और बल प्राप्त करनेकी प्रेरणा होती है । भले प्रकार जीवन व्यतीत करनेसे ज्यों २ समझ बढ़ती जाती है, कठिनाइयां घटती जाती हैं, संशय और घबराहट दूर होते जाते हैं, जैसे कि किरणों के प्रकाशसे धुन्द जाती रहती है ।
वस्तुतः तुम्हारी कठिनाई किसी घटनासे उत्पन्न नहीं हुई, व रच तुम्हारी मानसिक अवस्था ही तुम्हारी कठिनाईका कारण है, क्योंकि जिस प्रकार तुम किसी घटनाको विचारते और सोचते हो उसी सोच विचारसे तुममें कठिनाई उपजती है । देखो जो बात बालक के लिए कठिन होती है, परिपक्क बुद्धिवाले मनुप्यके लिए कठिन नहीं होती, और जिस बातसे मूर्खको विहलता उत्पन्न होती है, उससे ज्ञानीके मनमें तनिक भी विह्वलता नहीं होती ।
देखो बालकके अशिक्षित मनको किसी सरल और सुगम पाठके सीखने में कितनी भारी २ कठिनाइयां प्रतीत होती हैं । इस कठिनाईका कारण बच्चे अज्ञता या अज्ञान है और उसमें समझ