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जैनशतक |
द्रव्यलिंगी मुनि | मत्तगयंद सवैया |
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शीत सह तन धूप हैं तरुहेट रहें करुना उर आनें । झूठ कहैं न अदत्त गर्दै वनिता न चहैं लव लोभ न जानें || मौन वह पछि भेद लहँ नहिं, नेम गर्दै व्रत रीति पिछानें । यो निवह परमोख नहीं, विन ज्ञान यह जिनवीर बखान ॥ ९० ॥
अनुभवप्रशंसा | कवित्त मनहर |
जीवन अलप आयु बुद्धिबलहीन तामें. आगम अगाधसिंधु कैसे ताहि डांक है । द्वादशांग मूल एक अनुभा अपूर्व कला, भवावहारी घनसारकी सलाक है | यह एक सीख लीजे याहीको अभ्यास कीजे, याको रस पीजे एमो वीरजिन वाक है । इतनी ही सार यही आतमको हितकार, यहीं लों मदार फिर आगे ढूढाक है ॥ ९१ ॥ भगवत्प्रार्थना |
आगम अभ्यास होहु सेवा सरवज्ञ तेरी, संगति सदीव मिलौ साधरमी जनकी । सन्तनके गुनको बखान यह बान परो, मैटो देव देव ! पर औगुन कथ
१ थांह पाचेगा । २ ससाररूपी उष्णताको हरन करनेवाला ।