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जैनशतक । भरी है । माखिनके पर माफिक बाहर, चामके बेठन बेढ़.धरी है। नाहिं तो आय लगें अब ही, बक वायस जीव बचें न घरी है । देहदशा यहि दीखत भ्रात ! धिनात नहीं किन ? बुद्धि हरी है ॥ २० ॥
संसारस्वरूप।
कवित्त मनहर । काहूघर पुत्र जायो काईके वियोग आयो, काहू रागरंग काहू रोआ रोई करी है । जहां भान ऊगत
उछाह गीत गान देखे, सांझसमै ताही थान हाय हैहाय परी है ॥ ऐसी जगरीतको न देख भयभीत
होय, हा ! हा! नर मूढ़. तेरी मति कोने हरी है ? । मानुषजनम पाय सोवत बिहायो जाय, खोवत करोरनकी एक एक घरी है ॥ २१॥
सोरठा। कर कर जिनगुन पाठ, जात अकारथरे जिया ? आठ पहरमें साठ, घरीं घनेरे मोलकीं ॥ २२ ॥ कानी कौड़ी काज, कोरिनको लिख देत खत।। ऐसे मूरखराज, जगवासी जिय देखिये ! ॥२३॥
१ मक्खियोके पखो जैसे चमडेके बठनसे [ वेष्टनसे ] घिरी हुई। ou vox voor vor Ort vervolg og OVOG OVOG OVE YOGVAX VOGT
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