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कविवर भूधरदासविरचित-- जथाजातलिंगधारी कब, होहुं इच्छाचारी बलिहारिहुं वा घरीकी ॥ १७॥
राग वैराग्यका अन्तर कथन.। रागउदै भोगभाव लागत सुहावनेसे, विनाराग एसे लागे जसें नाग कारे हैं । रागहीसों पाग रहे तनमें
सदीव जीव, राग गये आवत गिलानि होत न्यारे हैं । में रागमों जगतरीति झूटी सव सांच जाने, राग मिटे
सूझत असार खेल सारे हैं । रागी विनरागीके विचार बड़ो ही भेद, जैसे "भटा पथ्य काहु काहुको से बयारे हैं” ॥ १८॥
भोगनिषेध ।
मत्तगयंद ( सवैया )। __ तू नित चाहत भोग नये नर, पूरवपुन्य विना किमि पहै । कर्मसँजोग मिल कहिं जोग, गहे तब रोग न भोग सके है ॥ जो दिन चारको व्यांत बन्यो कहुँ, तो परि दुर्गतिमें पछते है । याहिते यार! सलाह यही है “गई कर जा ” निवाह न है है ॥१९॥
देहस्वरूप। मातपिता-रज-वीरजसों, उपजी सब सात कुधात १ भटा अर्थात् वैगन किसीको पथ्य होते है और किसीको वादी होते है। Faroovesasrepveresvesves Cococco Saves werest
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