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जैनशतक ।
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تحریر:شاره کردن تقدیر
जियरा जी । गेह चुनाय करूं गहना कछु, व्याह 3. सुतासुत बाँटिये भांजी ॥ चिन्तत यों दिन जाहिं चले
जम, आन अचानक देत दगाजी । खेलत खेल खिलारि गये, “रह जाइ झपी शतरंजकी बाजी"॥
तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतंग उतंग खरे ही । दास खवाम अवाम अटा धन, जोरकरोरन १ कोश भरे ही ॥ ऐसे भये तो कहा भयो हे नर ! छोर
चले जब अंत छरे ही । धाम खरे रहे काम परे रहे, १ दाम गरे रहे ठाम धेरे ही ॥ ३३ ॥
अभिमाननिषेध ।
कवित्त मनहर । ___ कंचनभंडार भरे मोतिनके पुंज परे, घने लोग द्वार खरे मारग निहारते । जान चदि डोलत हैं झीने : सुर बोलत हैं, काहुकी हू ओर नेक नीक न चितारते ॥ कौलों धन खांग कोऊ कहें या न लांग तेई, फिर पाँय , नांगे कांगे परपग झारत । एते पै अयाने गरवाने रहें: विभौ पाय. धिक है समझ ऐसी धर्म ना सँभारते ३४
देखो भरजोबनमें पुत्रको वियोग आयो, तसंहि
१ विवाह वगैरह उत्सवोंमे जो मिष्टान्न वाटा जाता है, उसे भाजी १ कहते है । २ जमी हुई। ३ 'गडे रहे' तथा-'डरे रहे' ऐमा भी 7 पाट है।
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