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दस्साधिकार |
यद्यपि अब कोई ऐसा मनुष्य या जाति विशेष नहीं रही जिसके पूजaishaarat मीमांसा की जाय - जैनधर्ममें श्रद्धा और भक्ति रखनेवाले, ऊंच नीच सभी प्रकारके, मनुष्योंको नित्यपूजनका अधिकार प्राप्त है - तथापि इतनेपर भी जिनके हृदय में इस प्रकारकी कुछ शंका अवशेष हो कि दस्से ( गाटे ) जैनी भी पूजन कर सकते हैं या कि नहीं, उनको इतना और समझ लेना चाहिये कि जैनधर्म में 'दस्से' और 'बीसे' का कोई भेद नहीं है; न कहीं पर जैनशास्त्रों में 'दस्से' और 'बीसे' शका प्रयोग किया गया है ।
जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चारों वर्णोंसे बाह्य ( बाहर ) बीसोंका कोई पांचवा वर्ण नहीं है, उसी प्रकार दस्सोंका भी कोई भिन्न वर्ण नहीं है । चारों वर्णोंमे ही उनका भी अन्तर्भाव है । चारो ही वर्णके सभी मनुष्यों को पूजनका अधिकार प्राप्त होनेसे उनको भी वह अधिकार प्राप्त है । वैश्य जातिके दस्सोंका वर्ण वैश्य ही होता है । वे वैश्य होने के कारण शूद्रोसे ऊचा दर्जा रखते है और शूद्र लोग मनुष्य होनेके कारण तिर्यत्रोंसे ऊंचा दर्जा रखते है । जब शूद्र तो शूद्र, तिर्यंच भी पूजनके अधिकारी वर्णन किये गये है और तिर्यच भी कैसे ? मेंडक जैसे ! तब वैश्य जातिके दस्से पूजनके अधिकारी कैसे नहीं ? क्या वे जैनगृहस्थ या श्रावक नहीं होते ? अथवा श्रावकके बारह व्रतोंको धारण नहीं करसकते ? जब दस्से लोग यह सब कुछ होते है और यह सब कुछ अधिकार उनको प्राप्त है, तब वे पूजनके अधिकारसे कैसे वंचित रक्खे जा सकते हैं ? पूजन करना गृहस्थ जैनियोंका परमावश्यक कर्म है। उसके साथ अग्रवाल, खंडेलवाल या परवार आदि जातियोंका कोई बन्धन नहीं है-सबक लिये समान उपदेश है - जैसा कि ऊपर उल्लेख किये हुए आचार्योंके वाक्योंसे प्रगट है । परमोपकारी आचार्योंने तो ऐसे मनुष्यों को भी पूजनाऽधिकार से वंचित नहीं रक्खा, जो आकण्ठ पाप मन हैं और पापीसे पापी कहलाते हैं । फिर
१ वैश्यजातिके दस्सोको छोटीसरण ( श्रेणि) या छोटीसेन के बनिये अथवा विनैकया भी कहते है ।