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प्रतिज्ञा थी वह एतावन्मान (केवल इतनी) थी कि, "जो कोई भी परस्त्री मुझको नहीं इच्छेगी, मैं उससे बलात्कार नहीं करूंगा।" नहीं कह सकते कि उसने कितनी परस्त्रियोंका जो किसी भी कारणसे उससे रजामन्द (सहमत) होगई हों-सतीत्वमंग किया होगा अथवा उक्त प्रतिज्ञासे पूर्व कितनी परदाराओंसे बलात्कार भी किया होगा । इस परस्त्रीसेवनके अतिरिक्त वह हिंसादिक अन्य पापोंका भी त्यागी नहीं था। दिग्विरति आदि सप्तशील व्रतोंके पालनकी तो वहां बात ही कहां ? परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी, रविषेणाचार्यकृत पद्मपुराणमें अनेक स्थानोंपर ऐसा वर्णन मिलता है कि "महाराजा रावणने बड़ी भक्तिपूर्वक श्रीजिनेंद्रदेवका पूजन किया। रावणने अनेक जिनमंदिर बनवाये । वह राजधानीमें रहतेहुए अपने राजमन्दिरोंके मध्यमें स्थित श्रीशांतिनाथके सुविशाल चैत्यालयमें पूजन किया करता था । बहुरूपिणी विद्याको सिद्ध करनेके लिये बैठनेसे पूर्व तो उसने इस चैत्यालयमें बड़े ही उत्सवके साथ पूजन किया था और अपनी समस्त प्रजाको पूजन करनेकी आज्ञा दी थी। सुदर्शन मेरु और कैलाश पर्वत आदिके जिनमंदिरोंका उसने पूजन किया और साक्षात् केवली भगवानका भी पूजन किया।
कौशांबी नगरीका राजा सुमुख भी परस्त्रीसेवनका त्यागी नहीं था। उसने बीरक सेठकी स्त्री वनमालाको अपने घरमें डाल लिया था। फिर भी उसने महातपस्वी वरधर्म नामके मुनिराजको वनमालासहित आहार दिया और पूजन किया। यह कथा जिनसेनाचार्यकृत तथा जिनदास ब्रह्मचारीकृत दोनों हरिवंश पुराणोंमें लिखी है।
इसी प्रकार और भी सैकड़ों प्राचीन कथाएँ विद्यमान हैं, जिनमें पापियों तथा अव्रतियोंका पापाचरण कहीं भी उनके पूजनका प्रतिबन्धक नहीं हुआ और न किसी स्थानपर ऐसे लोगोंके इस पूजन कर्मको असत्कर्म बतलाया गया। वास्तवमें, यदि विचार किया जाय तो मालूम होगा कि जिनेंद्रदेवका भावपूर्वक पूजन स्वयं पापोंका नाश करनेवाला है, शास्त्रोंमें उसे अनेक जन्मोंके संचित पापोंको भी क्षणमात्रमें भमकर देनेवाला वर्णन