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छोडता हुआ भवभवमें भ्रमण करनेवाला और उक्त कर्मोंके क्षय होनेसे मुक्त होनेवाला है" इस प्रकारसे अनेक भेदोंसे जीवादि वस्तुओंका सद्भाव भगवानने दिव्य ध्वनिके द्वारा प्रस्फुटित किया ।
पश्चात् श्रावणमासकी प्रतिपदाको सूर्योदयके समय रौद्रमुहूर्तमें जब कि चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र पर था. गुरुके तीर्थकी (दिव्यध्वनिकी अथवा दिव्यध्वानद्वारा संसारसमुद्रसे तिरनेमें कारणभूत यथार्थ मोक्षमार्गके उपदेशकी ) उत्पत्ति हुई । श्रीइन्द्रभूति गणधरने भगवानकी वाणीको तत्त्वपूर्वक जानकर उसी दिन सायंकालको अंग और पूर्वोकी रचना युगपत् की और फिर उसे अपने सहधर्मी मुधर्मा स्वामीको पढ़ाया । इसके अनन्तर सुधर्माचार्यने अपने सधर्मी जम्बृस्वामीको और उन्होंने अन्य मुनिवरोंको वह श्रुत पढ़ाया।
पश्चात् जगत्पूज्य श्रीसन्मतिनाथ अनेक निकट भव्यरूपी सस्योंको (धान्यको) धर्मामृतरूपी वर्षाके सिंचनसे परमानन्दित करते हुए तीसवर्षतक अनेक देशोमें विहार करते हुए कमलोंके वनसे अतिशय शोभायमान पावापुरके उद्यानमें पहुँचे। और वहांसे जब तीन वर्ष साढ़ेआठ महीने चतुर्थ कालके शेष रह गये, तब कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीको मोक्ष पधारे । भगवानके निर्वाण होने के साथ ही श्रीइन्द्रभूति गणधरको केवलज्ञान उत्पन्न हुवा और वे बारहवर्ष विहार करके मोक्षको प्राप्त हुए। उनके
१ इसी दिन दीपमालिकाका उत्सव मनाया जाता है। निर्वाण कल्याणका रूपान्तर ही दीपमालिकाका उत्सव है. इसी दिनसे वीरनिर्वाणसंवत् चला है जिसका इससमय २४३४ वां वर्ष चलता है. गुजरात वगेरह अनेक प्रांतोंमें वर्तमानमें इसी दिन से ही नवे वर्षका प्रारभ होता है ।