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यति श्रीनयनसुखजी विरचित। मुनिवंशदीपिका।
दोहा। नमूं आप्त निग्रंथगुरु, अरु आगम निर्दोष । दरसि परसि उपदेश सुनि, पावत मन संतोष॥१॥ ज्ञान गुरुनतें होत है, गुरुजननै उपगार । गुरुजनौं जान्या परै, बंधमोक्षअधिकार ॥२॥ 'दृगसुख ' या संसारमें, गुरुसम हितू न कोय। सुपथ कुपथ बतला गये, जातै परहित होय ॥३॥ पंचम काल करालमैं, प्रोहण गुरुउपदेश । छोड़ि गये भवि जीव हो, तारन तरन विशेष ॥ ४ ॥ ऐसे सद्गुरु देवको, मत विसरौ उपगार । तुम भवसागरमैं पड़े, वे जिहाज करतार ॥५॥ तुमकौं सतगुरु नामकी, जो न होय सुधि वीर । गुणसमेत मुनिवंशकों, सुनि करो तृप्त शरीर ॥ ६॥ ककुंभांबर-अन्वयवि, जैनजती निर्ग्रथः।। यथा यथा ज्ञानी भये, सुन तिनको विरतंत ॥ ७॥
१बंध और मोक्षका अध्याय वा विषय । २ जहाज । ३ हे भव्यजीवो। ४ दिशारूपी जिनके वस्त्र है ऐसे दिगम्बर, उनकी आम्नायमे ।