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यति श्रीनयनसुखजी विरचित । दर्शनज्ञानचरित्रमई शिवमारग बतलाया ॥ १७॥ जीव अजीव दरव गुण परजय, नाना विध गाये । लागी कर्म अविद्या जिनकै, तिनकौं समझाये॥
दश अध्याय करी, कलिकलंकनिर्दलन धर्मकी, दे गये मूल जरी॥
मेरे मन ऐसा गुरु भावै, आप तिरै औरनकौं तारै, मारग बतलावै ॥ १८ ॥
समन्तभद्रस्वामी। श्रीसामंतभद्र आचारज, कथन किया नीका । गंधशतक नामा जिन रचियौ, महाभाष्य टीका ॥
सप्त नय जामैं गुरु बरनी, जिनत वस्तु म्वभाव सधै अझ, मंशय भ्रम हरनी॥१९॥ भई आतमा भ्रष्ट सदात, मारग ना पावै । संशय विभ्रम हेत औरकी, औरहि बतलावै ॥
सुगुरुने सबका भ्रम खंडा, शिप्यनकौं दे गये जेनका, जेवंता झंडा ।।
मेरे मन ऐसा गुरु भावे, आप तिरै औरनिकों तारे, मारग बतलावै ।। २० ॥
अकलंकभट्ट । पीछे श्रीअकलंकदेव मुनि, भए सुगुरु ज्ञानी । बड़े वंशमैं जनम लियौ जिन, बड़ी दया ठानी ।।
सूत्रमैं जान मन दीना, १ गन्धहस्तिमहाभाष्य-तत्त्वार्थसूत्रकी बड़ी टीका ।