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मुनिवंशदीपिका। आप तिर औरनिकौं तारै, मारग बतलावै ॥२९॥
धरसेनकी शिष्यपरंपरा। ताही संप्रदायके श्रीगुरु, देवोंके कारन । धवल जय धवल महाधवल श्रुत, तीनौं अघहारन।
उसी करणाटकमैं पावै, सुन नर मुनि धर भाव भक्ति नित, दर्शनकौं आ3॥३०॥ श्रीचामुंडरायकृत वनमैं, जिनमंदिर कहियै । तामैं तीनौं ग्रंथ ताड़के, पत्रोंपर लिहियै ॥
लिखी करणाटकवरणोंमें । एक बात तुम और सुनो जी अपने करणोंमैं ।
मेरे मन ऐसा गुरु भावै, आप तिरै औरनिकौं तारै, मारग बतलावै ॥ ३१॥ नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती ।
सवैया इकतीसा। आचारज सिरी नेमिचंद्र करणाटकमैं, धवलादि मूत्रनके पारगामी भये हैं । ताही अनुसारतें गोमट्टसार आदि कैई, गाथाबंध ग्रंथ सतगुरु वरनये हैं । लौकिक अलौकिक गणितकारतामैं कह्यौ, द्रव्य क्षेत्र काल भाव भिन्न भिन्न कहे हैं। पायो है 'सिद्धांतचक्रवर्ति' पद जगमाहि, ऐसे गुरु जानि दास नैनसुख नये हैं ॥ ३२॥
गुणधरस्वामी।
गीताछंद। मुनिराज श्रीगुणधर जगतमैं, ज्ञान गुण ऐसा लिया। १ पुरानी कर्णाटकी लिपिमें—जिसके पढ़नेवाले जानवाले इने गिने है।