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यति श्रीनयनसुखजी विरचित । पादपूज्य गुरुदेवज्ञानकी, जाऊं बलिहारी । जिन रचियौ सर्वार्थसिद्धि शुभ, टीका अघहारी ।। ____जीवकौं बहुविधि समझाया, तत्त्वारथ अधिगम शिवश्रुतका, भेद जु बतलाया ॥२६॥ चार सहस परमित वह टीका, सतगुरुनैं भाखी । बंध मोक्षकी कथा जीवकी, छानी नहिं राखी ॥
सुगुरुका जो कोई गुण भूलै, हिंडै' बहु संमार सदा, जगजालमाहिं झूलै ॥
मेरे मन ऐसा गुरु भावे, आप तिर औरनिकों तारे, मारग बतलावै ।। २७ ।।
धरसेन स्वामी। श्रीधरसेन मुनीश्वर जगम, ऐसा तप कीना। अग्रायणी पूर्वका किंचित्, ज्ञान जिनौं लीना ।
शिष्य गुणवंत दोय जिनकै । पुष्पदंत भुजबली ज्ञानकी, वृद्धि भई तिनकै ॥२८॥ धवल कोक (?) गंभीर ग्रंथमैं, कर्मप्रकृति भाखी। जैसे उदय उदीरण हो है, छानी नहीं राखी॥
देशकर्णाटकके माहीं, विद्यमान इस कालमाहिं, पर ज्ञानगम्य नाहीं।
__ मेरे मन ऐसा गुरु भावै, १ फिरे, भ्रमण करे । २ छुपी । ३ मूडबिद्री (सौथ-कानड़ा)मे । ४ ज्ञानगम्य नहीं है, इसका अभिप्राय यही लेना कि, कठिन है । पर परिश्रम करनेसे विद्वान उन्हें अब भी पढ़ सकते है और अभिप्राय समझ सकते है।
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