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एक श्रीमाघनन्दि नामक मुनिपुंगव हुए और वे भी अंगपूर्व-देशका भलीभांति प्रकाश करके स्वर्गलोकको पधारे । तदनन्तर सु. राष्ट्र ( सोरठ ) देशके गिरिनगरके समीप अर्जयन्तगिरि (गिरनार ) की चन्द्रगुफामें निवास करनेवाले महातपस्वी श्रीधरसेन आचार्य हुए। इन्हें अग्रायणीपूर्वके अन्तर्गत पंचमवस्तुके चतुर्थ महाकर्मप्राभृतका ज्ञान था।अपने निर्मल ज्ञानमें जब उन्हें यह भासमान हुआ कि, अब मेरी आयु थोडी शेष रह गई है और अब मुझे जो शास्त्रका ज्ञान है. वही संसारमें अलम् होगा । अर्थात् इससे अधिक शास्त्रज्ञ आगे कोई नहीं होगा । और यदि कोई प्रयत्न नहीं किया जावेगा तो श्रुतका विच्छेद होजावेगा । ऐसा विचारकर निपुणमति श्रीधरसेन महर्षिने देशेन्द्रदेशके बेणातटाकपुरमें निवास करनेवाले महामहिमाशाली मुनियों के निकट एक ब्रह्मचारीके द्वारा पत्र भेजा । ब्रह्मचारीने पत्र ले जाकर उक्त मुनियोंके हाथमें दिया। उन्होंने बंधन खोलकर वांचा । उसमें लिखा हुआ था कि, “ स्व. स्तिश्री बेणाकतटवासी यतिवरोंको उर्जयन्ततटनिकटस्थ चन्द्रगुहानिवासी धरसेनगणि अभिवन्दना करके यह कार्य सूचित करते हैं कि, मेरी आयु अत्यन्त स्वल्प रहगई है । जिससे मेरे हृदयस्थ शास्त्रकी व्युच्छिति होजाने की संभावना है, अतएव उसकी रक्षा करने के लिये आप लोग दो ऐसे यतीश्वरोंको भेज दीजिये जो शास्त्रज्ञानके ग्रहण-धारण करने में समर्थ और तीक्ष्ण बुद्धि हों। " इन समाचारोंका आशय भलीभांति समझकर उन मुनियोंने भी दो बुद्धिशाली मुनियोंको अन्वेषण करके तत्काल ही भेज दिये।