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निर्वाण होते ही सुधर्माचार्यको केवलज्ञानका उदय हुआ । सो उन्होंने भी बारहवर्ष विहारकरके अन्तिमगति पाई और तत्काल ही जम्बूस्वामीको केवलज्ञान हुआ । उन्होंने ३८ वर्ष विहार करके भव्य जीवोंको धर्मोपदेश दिया और अन्त में मोक्षमहलको पयान किया । इन तीनों मुनियोंने परम केवल विभूतिको पाई तबतक केवल दिवाकरका उदय निरन्तर बना रहा परन्तु उनके पश्चात् ही उसका अस्त होगया ।
जम्बूस्वामी मुक्तिके पीछे श्रीविष्णुमुनि सम्पूर्ण श्रुतज्ञानके पारगामी श्रुतकेवली ( द्वादशांग के धारक ) हुए और इसीप्रकार से नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये चार महामुनि भी अशेषश्रुतसागर के पारगामी हुए । उक्त पांचों श्रुतकेवली १०० वर्ष के अन्तराल में हुए अर्थात् भगवानकी मुक्तिके पश्चात् १२ वर्ष में ३ केवली हुए और फिर १०० वर्ष में ५ श्रुतकेवली हुए देखते २ श्रुतकेवल सूर्य भी अस्त होगये. तब ग्यारह अंग और दश पूर्व के धारण करनेवाले ग्यारह महात्मा हुए । विशाखदत्त, प्रोटिल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजयसेन, बुद्धिमान, गंगदेव और धर्मसेन | इतनेमें १८३ वर्षका समय व्यतीत होगया । पश्चात् दो सौ वीस वर्षमें नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, डुमसेन और कंसाचार्य ये पांच
१ वीर निर्वाणके पश्चात् ६२ वर्षतक केवलज्ञानका अस्तित्व भरतक्षेत्रमें रहा । २ सुप्रसिद्ध ज्योतिषी और अष्टाग निमित्त ज्ञानके ज्ञाता भद्रबाहु इनसे भिन्न हैं। वे इनस बहुत पीछे हुए हैं । ३ विशाखदत्तको किसी २ ने विशाखाचार्य भी लिखा है । ४ एक प ठमें धर्मसेनके स्थान मे ' दत्त ' लिखा है । ५ अन्यान्य ग्रन्थोंमें धुवसेन लिखा है ।