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रकका छात्र हूं।” तब इन्द्रभूतिने कहा. "ओह ! क्या तुम उसी सिद्धार्थनन्दनके छात्र हो, जो महा इन्द्रजालविद्याका जाननेवाला है. और जो लोगोंको आकाशमार्गमें देवोंको आते हुए दिखलाता है' ? अच्छा तो मैं उसीके साथ शास्त्रार्थ करूंगा | तेरे साथ क्या करूं । तुम्हारे जैसे छात्रों के साथ विवाद करने से गौरवकी हानि होती है। चलो चलें, उससे शास्त्रार्थ करने के लिये ।" ऐसा कहकर इन्द्रभूति इन्द्रको आगे करके अपने भाई अग्निभूति और वायुभूतिके साथ समवसरणकी ओर चला । वहां पहुंचनेपर ज्यों ही मानस्तम्भके दर्शन हुए त्यों ही उन तीनोंका गर्व गलित हो गया । पश्चात् जिनेन्द्र भगवान को देखकर इनके हृदयमें भक्तिका संचार हुआ । इसलिये उन्होंने तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया. स्तुतिपाठ पढ़ा और उसी समय समस्त परिग्रहका त्याग करके जिनदीक्षा ले ली । इन्द्रभूतिको तत्काल ही सप्तऋद्धियां प्राप्त होगई और आखिर में वे भगवान् के चार ज्ञानके धारी प्रथम गणधर हो गये । समवसरण में उन इन्द्रभूति गणधरने भगवान् से " जीव अस्तिरूप है. अथवा नास्तिरूप है ! उसके क्यार लक्षण हैं; वह कैसा है." इत्यादि साठ हजार प्रश्न किये । उत्तरमें " जीव अस्तिरूप है, अनादिनिधन है. शुभाशुभरूप कर्मोंका कर्ताभोक्ता है. प्राप्त हुए शरीरके आकार है, उपसंहरणविसर्पणधर्मवाला और ज्ञानादि गुणोंकरके युक्त है. उत्पाद, व्यय, प्रौव्य लक्षणविशिष्ट है, स्वसंवेदन ग्राह्य है. अनादिप्राप्त कर्मो के सम्बन्धसे नोकर्म-कर्मरूप पुद्गलोंको ग्रहण करता हुआ,
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१ भगवान् के कल्याणकोमे जब देवोका आगमन होता था. तब मिथ्याती लोग समझते थे कि यह कोई इन्द्रजालिया है, जो अपनी विद्यासे यह असंभव दृश्य दिखलाता है। 1