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ॐ नम सिद्धेभ्यः ।
अथ श्रुतावतारकथा लिख्यते ।
मंगलाचरण |
सर्वनाकीन्द्रवन्दितकल्याणपरं परं देवम् । प्रणिपत्यवर्धमानं श्रुतस्य वक्ष्येऽहंमवतारम् ॥ १ ॥ यद्यपि श्रुत अनादि निधन है । अर्थात् अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहैगा परन्तु यहां पर कालके आश्रयसे जो उसका अनेक बार उत्पाद और विनाश हुआ है, उसका वर्णन करते हैं || २ || इस भरतक्षेत्रमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नामके दो काल प्रवर्तते रहते हैं जिनमें कि निरन्तर जीवोंके शरीर की उंचाई और आयुमें न्यूनाधिकता हुआ करती है || ३ || अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालकी स्थिति पृथक् २ दश कोड़ाकोडी सागरकी है । दोनों की स्थिति के कालको कल्पकाल कहते हैं ॥ ४ ॥ इस समय अवसर्पिणी काल प्रवर्तमान हो रहा है । कालके भेद जाननेवाले गणधरदेवने इसके छह भेद बतलाये हैं; सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुःषमा, दुःषमसुषमा, दुषमा और दुःषमदुःषमा । इनमें से पहला चार कोड़ाकोडी सागरका, दूसरा तीन कोड़ा कोडी सागरका, तीसरा दो कोड़ा कोड़ीका, चौथा व्यालीस हजार वर्ष न्यून एक कोड़ाकोडी सागरका, पांचवां इक्कीस हजार वर्षका और छट्ठा इक्कीस हजार वर्षका ॥ ९ ॥ पहले कालमें मनुष्यों की उंचाई छह हजार धनुष, दूसरेमें चार हजार धनुष, हजार धनुष, चौथेमें पांचसौ धनुष पांचवेमें सात हाथ और छठेमें
तीसरेमें दो