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किया है । इसीसे पापोंकी निवृत्तिपूर्वक इष्ट सिद्धि के लिये लोग जिनदेवका पूजन करते हैं । फिर पापाचरणीयोंके लिये उसका निषेध कैसे हो सकता है ? उनके लिये तो ऐसी अवस्थामें, पूजनकी और भी अधिक आवश्यकता प्रतीत होती है। पूजासार ग्रथमें माफ ही लिखा है किः
"ब्रह्मनोऽथवा गोनो वा तस्करः सर्वपापकृत ।
जिनाशिगंधसम्पर्कान्मुक्तो भवति तत्क्षणम् ॥" अर्थात्-जो ब्रह्महत्या या गोहत्या कियेहुए हो, दूसरोंका माल चुरानेवाला चोर हो अथवा इससे भी अधिक सम्पूर्ण पापोंका करनेवाला भी क्यों न हो, वह भी जिनेंद्र भगवान के चरणोंका, भक्तिभावपूर्वक, चंदनादि सुगंध द्रव्योंसे पूजन करनेपर तत्क्षण उन पापोंसे छुटकारा पानेमें समर्थ होजाता है । इससे साफ तौर पर प्रगट है कि पीसे पापी और कलंकीसे कलंकी मनुष्य भी श्रीजिनंद्रदेवका पूजन कर सकता है और भक्ति भावसे जिनदेवका पूजन करके अपने आत्माके कल्याणकी ओर अग्रसर हो सकता है । इस लिये जिस प्रकार भी बन सके सबको निन्यपूजन करना चाहिये। सभी नित्यपूजनके अधिकारी है और इसी लिये ऊपर यह कहा गया था कि इस नित्यपूजनपर मनुष्य, तियंच, स्त्री, पुरुष, नीच, ऊंच, धनी, निर्धनी, व्रती, अवती, राजा, महाराजा, चक्रवर्ती और देवता सबका समानाऽधिकार है । समानाधिकारसे, यहां, कोई यह अर्थ न समझ लेवे कि सब एकसाथ मिलकर, एक थालीमें, एक संदली या चौकीपर अथवा एक ही स्थानपर पूजनकरनेके अधिकारी हैं किन्तु इसका अर्थ केवल यह है कि सभी पूजनके अधिकारी हैं । वे, एक रसोई या भिअभिन्न रसोईयोंसे भोजन करनेके समान, आगे पीछे, बाहर भीतर, अलग और शामिल, जैमा अवसर हो और जसी उनकी योग्यता उनको इजाजत (आज्ञा) दे, पूजन कर सकते हैं।
* जिनपूजा कृता हन्ति पापं नानाभवोद्भवम् । बहुकालचितं काष्ठराशि वह्नि मिवाखिलम् ॥ ९-१०३ ॥
-धर्मसंग्रहश्रावकाचार।