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(पचान) तथा प्रायः सहोढकी परीक्षा भी आसानीसे ले सकती है। परन्तु कुंडसंतानकी परीक्षाका और खासकर ऐसी कुंडसंतानकी परीक्षाका, कोई साधन नहीं है, जो भर्तारके बारहों महीने निकट रहते हुए (अर्थात् परदेशमें न होते हुए) उत्पन्न हो । कुंडकी माताके सिवा और किसीको यह रहस्य मालूम नहीं हो सकता । बल्कि कभी कभी तो उसको भी इसमें प्रम होना संभव है-वह भी ठीक ठीक नहीं कह सकती कि यह संतान जारसे उत्पन्न हुई या असली भर्तारसे । व्यभिचारजातको पूजनाऽधिकारसे वंचित करनेपर कुंडसंतान भी पूजन नहीं कर सकती,
और कुंड संतानकी परीक्षा न हो सकनेसे संदिग्धावस्था उत्पन्न होती है। संदिग्धाऽवस्थामें किसीको भी पूजन करनेका अधिकार नहीं होसकता। इससे पूजन करनेका ही अभाव सिद्ध हो जायगा, यही बड़ी भारी हानि होगी। अतः कोई व्यभिचारजात पूजनाऽधिकारसे वंचित नहीं होसकता । दूसरे जब पापीसे पापी मनुष्य भी नित्यपूजन कर सकते हैं तो फिर कोरे व्यभिचारजातकी तो बात ही क्या हो सकती है ? वे अवश्य पूजन कर सकते हैं।
वास्तवमें, यदि विचार किया जाय तो, जैनमतके पूजनसिद्धान्त और नित्यपूजनके स्वरूपाऽनुसार, कोई भी मनुष्य नित्यपूजनके अधिकारसे वंचित नहीं रह सकता । जिन लोगोंने परमात्माको रागी, द्वेषी माना हैपूजन और भजनसे परमात्मा प्रसन्न होता है, ऐसा जिनका सिद्धान्त है और जो आत्मासे परमात्मा बनना नहीं मानते, यदि वे लोग शूद्रोंको या अन्य नीच मनुष्योंको पूजनके अधिकारसे वंचित रक्खें तो कुछ आश्चर्य नहीं क्योंकि उनको यह भय हो सकता है कि कहीं नीचे दर्जेके मनुष्योंके पूजन कर लेनेसे या उनको पूजन करने देनेसे परमात्मा कुपित न हो जावे और उन सभीको फिर उसके कोपका प्रसाद न चखना पड़े । परन्तु जैनियोंका ऐसा सिद्धान्त नहीं है । जैनी लोग परमात्माको परमवीतरागी, शान्तस्वरूप और कर्ममलसे रहित मानते हैं । उनके इष्ट परमात्मामें राग, द्वेष, मोह और काम, क्रोधादिक दोषोंका सर्वथा अभाव है। किसीकी निन्दा-स्तुतिसे उस परमात्मामें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता और न उसकी वीतराग्ता या शान्ततामें किसी भी कारणसे कोई बाधा उपस्थित