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बन्धुताका बर्ताव करना चाहिये और आपसमें प्रेम रखते हुए एक दूसरेके धर्मकाय में सहायक होना चाहिये । इसीप्रकार जो लोग जैनधर्म की शरणमें आवें या आना चाहें, ऐसे नवीन जैनियों या आत्महितैषियोंका सच्चे दिलसे अभिनन्दन करते हुए, उनको सब प्रकारसे धर्मसाधनमें सहायता देनी चाहिये ।
आशा है कि हमारे विचारशील निष्पक्ष विद्वान् और परोपकारी भाई इस मीमांसाको पढ़कर सत्यासत्यके निर्णय में दृढता धारण करेंगे और अपने कर्त्तव्यको समझकर जहां कहीं, सुशिक्षाके अभाव और संसर्गदोषके कारण, आगम और धर्मगुरुभोंके उद्देश्यविरुद्ध प्रवृत्ति पाई जावे उसको उठाने और उसके स्थानमें शास्त्रसम्मत समीचीन रीतिका प्रचार करनेमें दत्तचित्त और यनशील होंगे । इत्यलं विज्ञेषु ।
निष्पक्ष विद्वानोंका चरणसेवकजुगलकिशोर जैन, मुखतार
समाप्त.
देवबन्द जि० सहारनपुर ।