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करना बड़ा भारी पाप है । अंजनासुंदरीने अपने पूर्वजन्ममें थोड़े ही कालके लिये, जिनप्रतिमाको छिपाकर, अपनी सौतनके दर्शन पूजनमें अंतराय डाला था। जिसका परिणाम यहांतक कटुक हुआ कि उसको अपने इस जन्ममें २२ वर्षतक पतिका दुःसह वियोग सहना पड़ा और अनेक संकट और आपदाओंका सामना करना पड़ा, जिनका पूर्ण विवरण श्रीपद्मपुराणके देखनेसे मालूम हो सकता है
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कुष्ट,
रयणसार ग्रंथ में श्री कुन्दकुन्द मुनिराजने लिखा है कि "दूसरोंके पूजन और दानमें अन्तराय ( विघ्न) करनेसे जन्मजन्मान्तरमें क्षय, शूल, रक्तविकार, भगंदर, जलोदर, नेत्रपीड़ा, शिरोवेदना आदिक रोग तथा शीत उष्णके आताप और ( कुयोनियोंम ) परिभ्रमण आदि अनेक दुःखोंकी प्राप्ति होती है ।" यथा:
“खयकुट्टसूलमूलो लोयभगंदरजलोदरक्खिसि । सीदुहबझराइ पूजादाणंतरायकम्मफलं ।। ३३ ।।”
इसलिये पापोंसे डरना चाहिये और किसीको दंडादिक देकर पूजनसे वंचित करना तो दूर रहो, भूल कर भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये जिससे दूसरोंके पूजनादिक धर्मकार्यों में किसी प्रकार से कोई बाधा उपस्थित हो । बल्कि ---
उपसंहार |
उचित तो यह है कि, दूसरोंको हरतरहसे धर्मसाधनका अवसर दिया - जाय और दूसरोंकी हितकामनासे ऐसे अनेक साधन तैयार किये जाँय जिनसे सभी मनुष्य जिनेन्द्रदेवके शरणागत हो सकें और जैनधर्ममें श्रद्धा और भक्ति रखते हुए खुशीसे जिनेन्द्रदेवका नित्यपूजनादि करके अपनी आत्माका कल्याण कर सकें ।
इसके लिये जैनियोंको अपने हृदयकी संकीर्णता दूरकर उसको बहुत कुछ उदार बनानेकी ज़रूरत है । अपने पूर्वजोंके उदार चरितोंकों पढ़कर, जैनियोंको, उनसे तद्विषयक शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये और उनके अनुकरणद्वारा अपना और जगतके अन्य जीवोंका हितसाधन करना चाहिये ।