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इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों ही वर्णके सब मनुष्य नित्य पूजनके अधिकारी हैं और खुशीसे नित्यपूजन कर सकते हैं। नित्यपूजनमें उनके लिये यह नियम नहीं है कि वे पूजकके उन समस्त गुणोंको प्राप्त करके ही पूजन कर सकते हो, जो कि धर्मसंग्रहश्रावकाचार
और पूजासार ग्रंथों में वर्णन किये हैं। बल्कि उनके विना भी वे पूजन करसकते हैं और करते हैं। क्योंकि पूजकका जो स्वरूप उक्त ग्रंथोंमें वर्णन किया है वह ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका स्वरूप है और जब वह स्वरूप ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका है तब यह स्वतःसिद्ध है कि उस स्वरूपमें वर्णन किये हुए गुणों से यदि कोई गुण किसीमें न भी होवे तो भी वह पूजनका अधिकारी और नित्यपूजक हो सकता है-दूसरे शब्दों में यों कहिये कि जिनके हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील (परस्त्रीसेवन)-परिग्रह-इन पंच पापों या इनमेंसे किसी पापका त्याग नहीं है, जो दिग्विरतिआदि सप्तशीलवत या उनमेंसे किसी शीलवतके धारक नहीं हैं अथवा जिनका कुल और जाति शुद्ध नहीं है या इसी प्रकार और भी किसी गुणसे जो रहित हैं, वे भी नित्यपूजन कर सकते हैं और उनको नित्यपूजनका अधिकार प्राप्त है।
यह दूसरी बात है कि गुणोंकी अपेक्षा उनका दर्जा क्या होगा ? अथवा फलप्राप्तिमें अपने अपने भावोंकी अपेक्षा उनके क्या कुछ न्यूनाधिक्यता (कमीवेशी) होगी ? और वह यहांपर विवेचनीय नहीं है।
यद्यपि आजकल अधिकांश ऐसे ही गृहस्थ जैनी पूजन करते हुए देखे जाते हैं जो हिंसादिक पांच पापोंके त्यागरूप पंचअणुव्रत या दिग्विरति आदि सप्तशीलवतके धारक नहीं है; तथापि प्रथमानुयोगके ग्रंथोंको देखनेसे मालूम होता है कि, ऐसे लोगोंका यह (पूजनका) अधिकार अर्वाचीन नहीं बल्कि प्राचीन समयसे ही उनको प्राप्त है। जहां तहां जैनशास्त्रोंमे दियेहुए अनेक उदाहरणोंसे इसकी भले प्रकार पुष्टि होती है:
लंकाधीश महाराज रावण परस्त्रीसेवनका त्यागी नहीं था, प्रत्युत वह परस्त्रीलम्पट विख्यात है । इसी दुर्वासनासे प्रेरित होकर ही उसने प्रसिद्ध सती सीताका हरण किया था। इसविषयमें उसकी जो कुछ भी