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सिद्धान्त और नित्यपूजनके स्वरूपसे विरुद्ध पड़नेके कारण यह स्वरूप साधारण नित्य पूजकका नहीं हो सकता । इसी प्रकार यह स्वरूप अंचे दर्जेके नित्य पूजकका भी नहीं हो सकता। क्योंकि ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका जो स्वरूप धर्मसंग्रहश्रावकाचार और पूजासार ग्रंथोंमें वर्णन किया है और जिसका कथन ऊपर आचुका है, उससे इस स्वरूपमें बहुत कुछ विलक्षणता पाई जाती है। यहांपर अन्य बातोंके सिवा त्रैवर्णिकको ही पूजनका अधिकारी वर्णन किया है; परन्तु ऊपर अनेक प्रमाणोंसे यह सिद्ध किया जाचुका है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों ही वर्णके मनुष्य पूजन कर सकते हैं और ऊंचे दर्जेके नित्यपूजक होसकते हैं। इसलिये यह स्वरूप ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकतक ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि उसकी सीमासे बहुत आगे बढ जाता है।
दूसरे यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि ऊंचा दर्जा हमेशा नीचे दर्जेकी और नीचा दर्जा ऊंचे दर्जेकी अपेक्षासे ही कहा जाता है। जब एक दर्जेका मुख्य रूपसे कथन किया जाता है तब दूसरा दर्जा गौण होता है, परन्तु उसका सर्वथा निषेध नहीं किया जाता । जैसा कि सकलचारित्र (महाव्रत) का वर्णन करते हुए देशचारित्र (अणुव्रत) और देशचारित्रका कथन करते समय सकलचारित्र गौण होता है; परन्तु उसका सर्वथा निवेध नहीं किया जाता अर्थात् यह नहीं कहा जाता कि जिसमें महाव्रतीके लक्षण नहीं वह व्रती ही नहीं हो सकता । व्रती वह ज़रूर हो सकता है; परन्तु महाव्रती नहीं कहला सकता। इससे यह सिद्ध होता है कि यदि ग्रंथकार महोदयके लक्ष्य में यह स्वरूप ऊंचे दर्जे के नित्य पूजकका ही होता, तो वे कदापि साधारण (नीचे दर्जेके) नित्य पूजकका सर्वथा निषेध न करते-अर्थात् , यह न कहते कि इन लक्षणोंसे रहित दूसरा कोई पूजक होनेके योग्य ही नहीं या पूजन करनेका अधिकारी नहीं। क्योंकि दूसरा नीचे दर्जेवाला भी पूजक होता है और वह नित्यपूजन कर सकता है। यह दूसरी बात है कि वह कोई विशेष नैमित्तिक पूजन न कर सकता हो । परन्तु ग्रंथकार महोदय, “उक्तलक्षणामेवार्यः कदाचिदपि नाऽपरम्" इस सप्तम श्लोकके उत्तरार्धद्वारा स्पष्टरूपसे उक्त लक्षण रहित दूसरे मनुप्यके पूजकपनेका निषेध करते हैं, बल्कि छठे श्लोकमें यहांतक लिखते हैं