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न हीनाङ्गो नाऽधिकाङ्गो न प्रलम्बो न वामनः । न कुरूपी न मूढात्मा न वृद्धो नातिबालकः ॥ १५१ ॥ न क्रोधादिकषायाढ्यो नार्थार्थी व्यसनी न च । नान्त्यास्त्रयो न तावाद्यौ श्रावकेषु न संयमी ॥ १५२॥" इन उपर्युक्त पूजकाचार्यस्वरूपप्रतिपादक श्लोकोंमें जो-"ब्राह्मण(ब्राह्मण हो), क्षत्रियः (क्षत्रिय हो), वैश्यः (वश्य हो), नानालक्षणलक्षितः (शीरसे सुन्दर हो), सद्दष्टिः (सम्यग्दृष्टि हो), देशसंयमी ( अणुव्रती हो), जिनागमस्य वेत्ता ( जिनसंहिता आदि जैनशास्त्रोंका जाननेवाला हो). अनालस्यः (आलस्य बा तन्द्रारहित हो), वाग्मी (चतुर हो), विनयान्वितः (मानकपायके अभावरूप विनयसहित हो), शौचाचमनसोत्साहः (शौच और आचमन करनेमें उत्साहवान् हो), साङ्गोपाङ्गयुतः (ठीक अङ्गोपाङ्गका धारक हो), शुद्धः (पवित्र हो), लक्ष्यलक्षणवित्सुधीः (लक्ष्य और लक्षणका जाननेवाला बुद्धिमान् हो). स्वदारी ब्रह्मचारी वा ( नदारसंतोषी हो या अपनी स्त्रीका भी त्यागी हो अर्थात् ब्रह्मचर्याणुव्रतके जो दो भेद हैं उसमेंसे किमी भेदका धारकहो), नीरोगः (रोगरहित हो), सक्रियारतः (नीची क्रियाके प्रनिकूल ऊची और श्रेष्ठ क्रिया करनेवाला हो), वारिमंत्रवतस्त्रातः (जलसान, मंत्रस्नान और व्रतस्नानकर पवित्र हो), निरभिमानी ( अभिमानरहित हो), न हीनाङ्गः ( अंगहीन न हो), नाऽधिकाङ्गः (अधिक अंगका धारक न हो), न प्रलम्बः (लम्बे कदका न हो), न वामनः(छोटेकदका न हो), न कुरूपी (बदसूरत न हो), न मूढात्मा (मूर्ख न हो), न वृद्धः(बृढ़ा न हो), नाऽतिबालकः (अति बालक न हो), न क्रोधादिकषायाढ्यः (क्रोध, मान, माया, लोभ, इन कषायोंमेंसे किसी कषायका धारक न हो), नार्थार्थी (धनका लोभी तथा धन लेकर पूजन करनेवाला न हो), न च व्यसनी (और पापाचारी न हो),"इत्यादि विशेषणपद आये हैं, उनसे प्रगट है कि उपर्युक्त जिनसंहितामें जो विशेषण पूजकके दिये है वे सब यहांपर साफ तौरसे पूजकाचार्यके वर्णन किये हैं । बल्कि श्लो० नं. १५१ तो जिनसंहिताके श्लोक नं ४