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लेख नं० ५८५ बड़े महत्त्व का है। इसमें मूलसंघ के साथ नन्दिसंघ का तथा बलात्कार गण के सारस्वत गच्छ का उल्लेख है । साथ ही इस गण के प्रादि प्राचार्य के रूप में पद्मनन्दि को लिखा है और उनके कुन्दकुन्द, वक्र श्रीव, एलाचार्य, ग्भ्रपिच्छ नाम दिए हैं। हमें लेखों से इस परम्परा के प्राचार्य अमरकीर्ति तक केवल प्रशंसा के अतिरिक्त विशेष कुछ नहीं मालुम होता है। लेखन० ५७२ ( सन् १३७२ ) से धर्मभूषण द्वितीय की । उनके शिष्य वर्धमान मुनि द्वारा निषद्या निर्माण का उल्लेख है । लेख नं० ५८५ में सिंहनन्दि आचार्य को सेनापति इरुगप का गुरु लिखा है। ये सिंहनन्दि वे ही प्रतीत होते हैं जिनका उल्लेख हमें लेख नं० ५६६ में मिला है। धर्मभूषण तृतीय का कुछ विद्वान् वर्तमान न्यायदीपिका ग्रंथ के कर्ता से साम्य स्थापित करते हैं। ये विजयनगर सबाट देवराय के गुरु थे, यह बात हमें लेख नं. ६६७ के एक श्लोक से विदित होती है। देवराय प्रथम का समय सन् १४०६ ई० से १४२२ तक है। लेख में धर्मभूषण तृतीय का समय सन् १३८६ दिया गया है जो संभव है उनके पट्टारोहण के आस पास का समय हो।
लेख नं० ६६७ ( सन् १५५४ के लगभग ) और ६६१ (सन् १६०८ ई०) में इस गण की एक गुरुपरम्परा इस प्रकार दी गई:
सिंहकीर्ति मेरुनन्दि, वर्धमान आदि विशालकीर्ति ( सन् १४६७-१५५४ ई.) विद्यानन्द ( सन् १५०२-१५३० ई.) देवेन्द्रकीर्ति ( सन् १५३०-१५५० ई)
विशालकीर्ति द्वितीय ( सन् १५५०-१६०८ ई.) १. ५० दरबारीलाल न्यायाचार्य, न्यायदीपिका, प्रस्तावना, पृष्ट ६२-२६ ।