________________
राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ]
व्यापारिक केन्द्र के रूप में उल्लेख किया गया है, जो वस्त्र निर्माण की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण था।' कुषाण काल में मथुरा के जैन समाज में व्यापारियों एवं शिल्पकर्मियों की प्रमुखता की पुष्टि जैन मूर्तियों पर उत्कीर्ण अनेक लेखों से होती है, जिनसे जैन धर्म एवं कला में उनका योगदान स्पष्ट है। ब्यूहलर के अध्ययन के अनुसार मथुरा के जैन अधिक संख्या में, सम्भवतः सर्वाधिक संख्या में, व्यापारी एवं व्यवसायी वर्ग के थे ।२ जैन मूर्तियों के पीठिका-लेखों में प्राप्त दानकर्ताओं की विशिष्ट उपाधियां उनके व्यवसाय की सूचक हैं । लेखों में श्रेष्ठिन्, सार्थवाह, गन्धिक आदि के अतिरिक्त सुवर्णकार, वधंकिन (बढ़ई), लौहकर्मक शब्दों के भी उल्लेख हैं। साथ ही नाविक (प्रातारिक), वैश्याओं, नर्तकों के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं।
___ पहली-दूसरी शती ई० के सोनभण्डार गुफा (राजगिर) के एक लेख में मुनि वैरदेव (श्वेताम्बर आचार्य वज्र : ५७ ई०) द्वारा जैन मुनियों के निवास के लिए गुफाओं के निर्माण का उल्लेख है जिसमें तीर्थंकर मूर्तियां भी स्थापित की गई।
दूसरी शती ई० के अन्त (ल. १७६ ई०) में कुषाणों के पतन के उपरान्त मथुरा के राजनीतिक मंच पर नागवंश का उदय हुआ। दूसरी क्षेत्रीय शक्तियों का भी उदय हुआ। भिन्न राजनीतिक मानचित्र एवं परिस्थिति में व्यापार शिथिल पड गया। पूर्व की तुलना में इस युग के कलावशेषों में तीर्थकर या अन्य जैन मूर्तियों की संख्या बहत कम है तथा तीर्थंकरों के जीवनदृश्यों, नैगमेषी एवं सरस्वती के अंकनों का पूर्ण अभाव है, जो जैन मूर्ति निर्माण की क्षीणता का द्योतक है। तथापि पारम्परिक एवं व्यापारिक पृष्ठभूमि के कारण जैन समुदाय अब भी सुसंगठित और धार्मिक क्षेत्र में क्रियाशील था, जिसकी पुष्टि चौथी शती ई. के प्रारम्भ या कुछ पूर्व आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में आगम साहित्य के संकलन हेतु हुए द्वितीय वाचन से होती है।
गुप्त-युग
चौथी शती ई० के प्रारम्भ से छठी शती ई० के मध्य तक गुप्तों के शासन काल में संस्कृति एवं कला का सर्वपक्षीय विकास हुआ । समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय एवं स्कन्दगुप्त जैसे पराक्रमी शासकों ने उत्तर भारत को एकसूत्र में बांधे रखा । शांतिपूर्ण वातावरण में व्यवसायों एवं देशव्यापी व्यापार का पुनरुत्थान हुआ और आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हई। गुप्त यग में भडौंच, उज्जैनी, विदिशा, वाराणसी, पाटलिपुत्र, कौशाम्बी, मथुरा आदि व्यापारिक महत्व के प्रमुख नगर स्थल मार्ग से एक दूसरे से सम्बद्ध थे। ताम्रलिप्ति (आधुनिक तामलुक) बंगाल का प्रमुख बंदरगाह था, जहां से विदेशों से व्यापार होता था। इस युग में मिस्र, ग्रीस, रोम, पसिया, सीरिया, सीलोन, कम्बोडिया, स्याम, चीन, सुमात्रा आदि अनेक देशों से भारत का व्यापार हो रहा था।
गुप्त शासक मुख्यतः ब्राह्मण धर्मावलंबी होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति उदार थे। तथापि अभिलेखिक एवं साहित्यिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि इस युग में जैन धर्म की बहुत उन्नति नहीं हुई। फाह्यान के यात्रा विवरण में भी जैन धर्म का अनुल्लेख है। रामगुप्त (?) के अतिरिक्त अन्य किसी भी गुप्त शासक द्वारा जैन मूर्ति निर्माण का उल्लेख नहीं मिलता है। विदिशा से प्राप्त ल. चौथी शती ई० की तीन जिन मूर्तियों में से दो के पीठिका-लेखों में महाराजाधिराज
१ जैन, जे० सी०, पू०नि०, पृ० ११४-१५ २ सिंह, जे० पी०, आस्पेक्टस ऑव अर्ली जैनिजम, वाराणसी, १९७२, पृ० ९०, पा०टि० ३ ३ एपि० इण्डि०, खं० १, लेख सं०१, २, ७, २१, २९; खं० २, लेख सं०५, १६, १८, ३९ ४ आ०स०ई०ऐ०रि०, १९०५-०६, पृ० ९८,१६६ ५ शाह, यू० पी०, "बिगिनिंग्स ऑव जैन आइकानोग्राफी', सं०पु०प०, अं० ९, पृ० २ ६ अल्तेकर, ए० एस०, 'ईकनामिक कण्डीशन', दि वाकाटक गुप्त एज, दिल्ली, १९६७, पृ० ३५७-५८ ७ मैती, एस० के०, ईकनामिक लाईफ ऑव नार्दर्न इण्डिया इन दि गुप्त पिरियड, कलकत्ता, १९५७, पृ० १२०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org