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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
उपासकों से वेष्टित धर्मचक्र भी उत्कीर्ण है । सिंहासन के छोरों एवं परिकर पर लघु जिन मूर्तियों का उत्कीर्णन भी प्रारम्भ हुआ । इसी समय की अकोटा की जिन मूर्तियों में धर्मचक्र के दोनों ओर दो मृगों के उत्कीर्णन की परम्परा प्रारम्भ हुई, जो गुजरात-राजस्थान की श्वेतांबर जिन मूर्तियों में निरन्तर लोकप्रिय रही।
यक्ष-यक्षी से युक्त प्रारम्भिकतम जिन मूर्ति (ल० छठी शती ई०) अकोटा से मिली है।' द्विभुज यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं । ल० सातवीं-आठवीं शती ई० से जिन मतियों में नियमित रूप से यक्ष-यक्षी-निरूपण प्रारम्भ हुआ । सातवीं से नवीं शती ई० की ऐसी कुछ जिन मूर्तियां भारत कला भवन, वाराणसी (२१२), मथुरा एवं लखनऊ संग्रहालयों, तथा अकोटा, ओसिया (महावीर मन्दिर) एवं धांक (काठियावाड़) में सुरक्षित हैं (चित्र २६) । इन सभी उदाहरणों में यक्ष-यक्षी सामान्यतः द्विभुज सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं। आठवीं-नवीं शती ई० के बाद की जिन मूर्तियों में ऋषभ, शान्ति, नेमि, पावं एवं महावीर के साथ पारम्परिक या स्वतन्त्र लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी निरूपित हैं। पर गुजरात एवं राजस्थान की श्वेतांबर जिन मूर्तियों में सभी जिनों के साथ अधिकांशतः सर्वानुभूति एवं अम्बिका ही आमूर्तित हैं । मूर्तियों में यक्ष दाहिने और यक्षी बाएं पार्श्व में उत्कीर्ण हैं ।
ल० आठवीं-नवीं शती ई० तक साहित्य में २४ जिनों के लांछनों का निर्धारण हुआ। श्वेतांबर और दिगम्बर दोनों ही परम्परा के ग्रन्थों में २४ जिनों के निम्नलिखित लांछनों के उल्लेख हैं : वृषभ, गज, अश्व, कपि, क्रौंच पक्षी, पद्म, स्वस्तिक, शशि, मकर, श्रीवत्स, गण्डक (या खड्गी), महिष, शूकर, श्येन, वज्र, मृग, छाग (बकरा), नंद्यावतं, कलश, कूर्म, नीलोत्पल, शंख, सर्प एवं सिंह ।
मतियों में जिनों के लांछन सिहासन के ऊपर या धर्मचक्र के समीप उत्कीर्ण हैं। लटकती जटाओं से शोभित ऋषभ के साथ वृषभ लांछन सर्वदा प्रदर्शित है, पर सर्प फणों से शोभित सुपावं एवं पार्श्व के लांछन (स्वस्तिक एवं सी केवल कुछ ही उदाहरणों में उत्कीर्ण हैं। उल्लेखनीय है कि गुजरात एवं राजस्थान की श्वेतांबर जिन मूर्तियों में लांछनों
१ शाह, यू० पी०, अकोटा ब्रोन्जेज, बम्बई, १९५९, पृ० २८-२९, फलक १०, ११ २ कुछ ऋषभ, पाव एवं महावीर की मूर्तियों में स्वतन्त्र यक्ष-यक्षी उत्कीर्ण हैं । ३ प्रतिष्ठासारोद्धार १.७७; प्रतिष्ठासारसंग्रह ४.१२ ४ तिलोयपण्णत्ति में स्वस्तिक के स्थान पर नंद्यावर्त का उल्लेख है। ५ तिलोयपण्णत्ति में श्रीवत्स के स्थान पर स्वस्तिक एवं प्रतिष्ठासारोद्धार में श्रीद्रुम के उल्लेख हैं।
तिलोयपण्णत्ति में नंद्यावर्त के स्थान पर तगरकुसुम (मत्स्य) का उल्लेख है। ७ वसह गय तुरय वानर । कुंच कमलं च सब्बिओ चंदो॥ मयर सिरिवच्छ गंडो। महिस वराहो य सेणो य॥ वज्ज हरिणो छगलो। नंदावत्तो य कलस कुम्मोय ॥ नीलप्पल संख फणी। सीहो य जिणाण चिन्हाई ॥ प्रवचनसारोद्धार ३८१-८२: अभिधान चितामणि, देवाधिदेव काण्ड, ४७-४८ रिसहादीणं चिण्हं गोवदिगयतु रगवाणरा कोकं । पउमं गंदावत्तं अद्धससी मयरसोत्तीया ।। गंडं महिसवराहा साही वज्जाणि हरिणछगलाय । तगरकुसुमा य कलसा कुम्मुप्पलसंखअहिसिंहा ॥ तिलोयपण्णत्ति ४.६०४-६०५:
प्रतिष्ठासारोद्धार १.७८-७९; प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.८०-८१ ८ मध्ययगीन जिन मूर्तियों में ऋषभ के अतिरिक्त कुछ अन्य जिनों के साथ भी जटाएं प्रदर्शित हैं। सम्भवतः इसी कारण ऋषभ के साथ लांछन का प्रदर्शन आवश्यक प्रतीत हुआ होगा।
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