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[जैन प्रतिमाविज्ञान
मथुरा से पहली से चौथी शती ई० के मध्य की पांच मूर्तियां मिली हैं जो सम्प्रति राज्य संग्रहालय, लखनऊ में हैं। चार मूर्तियों में नेमि की पहचान पार्श्ववर्ती बलराम एवं कृष्ण की आकृतियों के आधार पर की गई है। बलराम पांच या सात सर्पफणों के छत्र से युक्त हैं। एक कायोत्सर्ग मूर्ति (जे ८, ९७ ई.) के लेख में अरिष्टनेमि का नाम भी उत्कीर्ण है। परवर्ती कुषाण काल की एक मूर्ति का उल्लेख डॉ० अग्रवाल ने किया है। यह मूर्ति मथुरा संग्रहालय (२५०२) में है । मूर्ति का निचला भाग खण्डित है। नेमि के दाहिने और बांये पावों में क्रमशः बलराम एवं कृष्ण की चतुर्भुज मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । बलराम की दो अवशिष्ट भुजाओं में से एक में हल है और दूसरी जान पर स्थित है। कृष्ण की अवशिष्ट भुजाओं में गदा और चक्र हैं।
पहली शती ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति (राज्य संग्रहालय, लखनऊ जे ४७) में चतुर्भुज बलराम की ऊपरी भुजाओं में गदा और हल हैं। वक्षःस्थल के समक्ष मुड़ी दाहिनी भुजा में एक पात्र है। चतुर्भुज कृष्ण वनमाला से शोभित हैं। उनकी तीन अवशिष्ट भुजाओं में अभयमुद्रा, गदा और पात्र प्रदर्शित हैं। दूसरो-तीसरी शती ई० की दो अन्य ध्यानस्थ मूर्तियों में केवल बलराम की ही मूर्ति उत्कीर्ण है। सात सर्पफणों के छत्र से युक्त द्विभुज बलराम नमस्कार-मुद्रा में हैं । ल० चौथी शती ई० की एक मूर्ति (राज्य संग्रहालय, लखनऊ, जे १२१) में नेमि कायोत्सन में खड़े हैं (चित्र २५)। उनके पाश्वों में चतुर्भज बलराम एवं कृष्ण की मूर्तियां हैं । नेमि के वाम पाश्र्व में एक छोटी जिन आकृति और चरणों के समीप तीन उपासक चित्रित हैं । सिंहासन के धर्मचक्र के दोनों ओर दो ध्यानस्थ जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं। पांच सर्पफणों की छत्रावली से युक्त बलराम की तीन भुजाओं में मुसल, चषक और हल (?) हैं। ऊपर की दाहिनी भुजा सर्पफणों के समक्ष प्रदर्शित है । कृष्ण की तीन अवशिष्ट भुजाओं में फल (?), गदा और शंख हैं।
ल० चौथी शती ई० की एक मूर्ति राजगिर के वैभार पहाड़ी से मिली है। पीठिका-लेख में 'महाराजाधिराज श्रीचन्द्र' का उल्लेख है, जिसकी पहचान गुप्त शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय से की गई है। सिंहासन के मध्य में एक पुरुष आकृति खड़ी है जिसके दाहिने हाथ से अभयमुद्रा व्यक्त है। यह आकृति आयुध पुरुष की है या नेमि का राजपुरुष के रूप में अंकन है। इस आकृति के दोनों ओर नेमि का शंख लांछन उत्कीर्ण है। लांछन से युक्त यह प्राचीनतम जिन मूर्ति है। शंख लांछन के समीप दो छोटी जिन आकृतियां हैं। परिकर में चामरधर या कोई अन्य सहायक आकृति नहीं उत्कीर्ण है।
ल० सातवीं शती ई० की एक मूर्ति राजघाट (वाराणसी) से मिली है और सम्प्रति भारत कला भवन, वाराणसी (२१२) में सुरक्षित है (चित्र २६)। इसमें नेमि ध्यानमुद्रा में सिंहासन पर विराजमान हैं। लांछन नहीं उत्कीर्ण है. किन्तु यक्षी अम्बिका की मूर्ति के आधार पर मूर्ति की नेमि से पहचान सम्भव है । मूर्ति दो भागों में विभक्त है। ऊपरी भाग में मूलनायक की मूर्ति, चामरधर, सिंहासन, भामण्डल, त्रिछत्र, दुन्दुभिवादक और उड्डीयमान मालाधर तथा निचले भाग में एक वृक्ष (सम्भवतः कल्पवृक्ष) उत्कीर्ण हैं । वृक्ष के दोनों ओर त्रिभंग में खड़ी द्विभुज यक्ष-यक्षी मूर्तियां निरूपित हैं। सिंहासन के छोरों के स्थान पर सिंहासन के नीचे यक्ष-यक्षी का चित्रण मूर्ति की दुर्लभ विशेषता है । दक्षिण
१ अग्रवाल, वी० एस०, पू०नि०, पृ० १६-१७ २ श्र वास्तव, वी० एन०, पू०नि०, पृ० ५० ३ राज्य संग्रहालय, लखनऊ, जे ११७, जे ६० ४ श्रीवास्तव, वी० एन०, पू०नि०, पृ० ५०-५१ ५ चंदा, आर०पी, 'जैन रिमेन्स ऐट राजगिर', आ०स०ई०ऐरि०, १९२५-२६, पृ० १२५-२६ ६ स्ट००आ०, पृ० १४
७ चंदा, आर०पी०, पू०नि०, पृ० १२६ ८ तिवारी, एम०एन०पी०, 'ए नोट आन दि आइडेन्टिफिकेशन ऑव ए तीर्थंकर इमेज़ ऐट भारत कला भवन,
वाराणसी, जैन जर्नल, खं० ६, अं० १, पृ० ४१-४३
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