________________
२५१
निष्कर्ष ]
क्षेत्रपाल, सरस्वती, लक्ष्मी आदि के अंकन विशेष लोकप्रिय थे (चित्र २७, २८) । बिहार, उड़ीसा एवं बंगाल की जिन मूर्तियों में यक्ष-यक्षी युगलों, सिंहासन, धर्मचक्र, गजों, दुन्दुभिवादकों आदि का अंकन लोकप्रिय नहीं था । ल० दसवीं शती ई० में जिन मूर्तियों के परिकर में २३ या २४ छोटी जिन मूर्तियों का अंकन प्रारम्भ हुआ। बंगाल की छोटी जिन मूर्तियां अधिकांशत: लांछनों से युक्त हैं (चित्र ९ ) । जैन ग्रन्थों में द्वितीर्थी एवं त्रितीर्थी जिन मूर्तियों के उल्लेख नहीं मिलते | पर दिगंबर स्थलों पर, मुख्यतः देवगढ़ एवं खजुराहो में, नवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य इनका उत्कीर्णन हुआ। इन मूर्तियों में दो या तीन भिन्न जिनों को एक साथ निरूपित किया गया है ।
जिन चौमुखी मूर्तियों का उत्कीर्णन पहली शती ई० में मथुरा में प्रारम्भ हुआ और आगे की शताब्दियों में भी लोकप्रिय रहा ( चित्र ६६ - ६९ ) । चौमुखी मूर्तियों में चार दिशाओं में चार ध्यानस्थ या कायोत्सर्गं जिन मूर्तियां उत्कीर्ण होती हैं। इन मूर्तियों को दो मुख्य वर्गों में बांटा जा सकता है। पहले वर्ग में वे मूर्तियां हैं जिनमें चारों ओर एक ही जिन की चार मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इस वर्ग की मूर्तियां समवसरण की धारणा से प्रभावित हैं और ल० सातवीं-आठवीं शती ई० में इनका निर्माण हुआ। दूसरे वर्ग की मूर्तियों में चारों ओर चार अलग-अलग जिनों की चार मूर्तियां हैं । मथुरा की कुषाण कालीन चौमुखी मूर्तियां इसी वर्ग की हैं। मथुरा की कुषाण कालीन चौमुखी मूर्तियों के समान ही इस वर्ग की अधिकांश मूर्तियों में केवल ऋषभ और पार्श्व की ही पहचान सम्भव है । कुछ मूर्तियों में अजित, सम्भव, सुपाखं, चन्द्रप्रम नेमि, शान्ति एवं महावीर भी निरूपित हैं। बंगाल में चारों जिनों के साथ लांछनों और देवगढ़ एवं विमलवसही में यक्षयक्ष युगलों का चित्रण प्राप्त होता है । ल० दसवीं शती ई० में चतुर्विंशति- जिन पट्टों का निर्माण प्रारम्भ हुआ । ग्यारहवीं शती ई० का एक विशिष्ट पट्ट देवगढ़ में है ।
भगवती सूत्र, तत्वार्थ सूत्र, अन्तगड़बसाओ एवं पउमचरिय जैसे प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में यक्षों के प्रचुर उल्लेख हैं। इनमें माणिभद्र और पूर्णभद्र यक्षों और बहुपुत्रिका यक्षी की सर्वाधिक चर्चा है । जिनों से संश्लिष्ट प्राचीनतम यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं, जिनकी कल्पना प्राचीन परम्परा के माणिभद्र - पूर्णभद्र यक्षों और बहुपुत्रिका यक्षी से प्रभावित है ।' ल० छठी शती ई० में शिल्प में जिनों के शासन और उपासक देवों के रूप में यक्ष और यक्षी का निरूपण प्रारम्भ हुआ । यक्ष एवं यक्षी को जिन मूर्तियों के सिंहासन या पीठिका के क्रमशः दायें और बायें छोरों पर अंकित किया गया । ल० छठी से नवीं शती ई० तक के ग्रन्थों में केवल यक्षराज ( सर्वानुभूति), धरणेन्द्र, चक्रेश्वरी, अम्बिका एवं पद्मावती की ही कुछ लाक्षणिक विशेषताओं के उल्लेख हैं । २४ जिनों के स्वतन्त्र यक्षी - यक्षी युगलों की सूची ल० आठवींनवीं शती ई० में निर्धारित हुई । सबसे प्रारम्भ की सूचियां कहावली, तिलोयपणात्त और प्रवचनसारोद्धार में हैं । २४ यक्ष- यक्षी युगलों की स्वतन्त्र लाक्षणिक विशेषताएं ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० में नियत हुईं जिनके उल्लेख निर्वाणकलिका, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र एवं प्रतिष्ठासारसंग्रह तथा अन्य कई ग्रन्थों में हैं । श्वेतांबर ग्रन्थों में दिगंबर परम्परा के कुछ पूर्व ही यक्ष और यक्षियों की लाक्षणिक विशेषताएं निश्चित हो गयीं थीं। दोनों परम्पराओं में यक्ष एवं यक्षियों के नामों और उनकी लाक्षणिक विशेषताओं की दृष्टि से पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगत होती है । दिगंबर ग्रन्थों में यक्ष और यक्षियों के नाम और उनकी लाक्षणिक विशेषताएं श्वेतांबर ग्रन्थों की अपेक्षा स्थिर और एकरूप हैं ।
दोनों परम्पराओं की सूचियों में मातंग, यक्षेश्वर एवं ईश्वर यक्षों तथा नरदत्ता, मानवी, अच्युता एवं कुछ अन्य यक्षियों के नामोल्लेख एक से अधिक जिनों के साथ किये गये हैं । भृकुटि का यक्ष और यक्षी दोनों के रूप में उल्लेख है । २४ यक्ष और यक्षियों की सूची में से अधिकांश के नाम एवं उनकी लाक्षणिक विशेषताएं हिन्दू और कुछ उदाहरणों में बौद्ध देवकुल से प्रभावित हैं । हिन्दू देवकुल से प्रभावित यक्ष-यक्षी युगल तीन भागों में विभाज्य हैं। पहली कोटि में ऐसे यक्ष यक्षी युगल हैं जिनके मूल देवता आपस में किसी प्रकार सम्बन्धित नहीं हैं । अधिकांश यक्ष-यक्षी युगल इसी वर्ग के हैं।
१ शाह, यू०पी०, 'यक्षज वरशिप इन अर्ली जैन लिट्रेचर', ज०ओ०६०, खं० ३, अं० १, पृ० ६१-६२ । सर्वानुभूति को मातंग, गोमेध या कुबेर भी कहा गया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org