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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
दूसरी कोटि में ऐसे यक्ष-यक्षी युगल हैं जो मूलरूप में हिन्दू देवकुल में भी आपस में सम्बन्धित हैं, जैसे श्रेयांशनाथ के ईश्वर एवं गौरी यक्ष-यक्षी युगल । तीसरी कोटि में ऐसे यक्ष-यक्षी युगल हैं जिनमें यक्ष एक और यक्षी दूसरे स्वतन्त्र सम्प्रदाय के देवता से प्रभावित हैं । ऋषभनाथ के गोमुख यक्ष एवं चक्रेश्वरी यक्षी इसी कोटि के हैं, जो शिव और वैष्णवी से प्रभावित हैं; शिव और वैष्णवी क्रमशः शैव एवं वैष्णव धर्म के प्रतिनिधि देव हैं । ल० छठी शती ई० में सर्वप्रथम सर्वानुभूति एवं अम्बिका को अकोटा में मूर्त अभिव्यक्ति मिली। इसके बाद धरणेन्द्र और पद्मावती की मूर्तियां बनीं और ल० दसवीं शती ई० से अन्य यक्ष-यक्षियों की भी मूर्तियां बनने लगीं । ल० छठी शती ई० में जिन मूर्तियों में और ल० नवीं शती ई० में स्वतन्त्र मूर्तियों के रूप में यक्ष-यक्षियों का निरूपण प्रारम्भ हुआ ।" ल० छठी से नवीं शती ई० के मध्य की ऋषभ, शान्ति, नेमि, पाश्वं एवं कुछ अन्य जिनों की मूर्तियों में सर्वानुभूति एवं अम्बिका ही आमूर्तित हैं । ल० दसवीं शती ई० से ऋषभ, शान्ति, नेमि, पार्श्व एवं महावीर के साथ सर्वानुभूति एवं अम्बिका के स्थान पर पारम्परिक या स्वतन्त्र लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी युगलों का निरूपण प्रारम्भ हुआ, जिसके मुख्य उदाहरण देवगढ़, ग्यारसपुर, खजुराहो एवं राज्य संग्रहालय, लखनऊ में हैं । इन स्थलों को दसवीं शती ई० की मूर्तियों में ऋषभ और नेमि के साथ क्रमशः गोमुख चक्रेश्वरी और सर्वानुभूति-अम्बिका तथा शान्ति, पार्श्व एवं महावीर के साथ स्वतन्त्र लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी उत्कीर्ण हैं ।
नवीं शती ई० के बाद बिहार, उड़ीसा और बंगाल के अतिरिक्त अन्य सभी क्षेत्रों की जिन मूर्तियों में यक्षयक्ष युगलों का नियमित अंकन हुआ है । स्वतन्त्र अंकनों में यक्ष की तुलना में यक्षियों के चित्रण अधिक लोकप्रिय थे । २४ यक्षियों के सामूहिक अंकन के हमें तीन उदाहरण मिले हैं, पर २४ यक्षों के सामूहिक चित्रण का सम्भवतः कोई प्रयास ही नहीं किया गया । यक्षों की केवल द्विभुजी ओर चतुर्भुजी मूर्तियां बनीं, पर यक्षियों की दो से बीस भुजाओं तक की मूर्तियां मिली हैं ।
यक्ष और यक्षियों की सर्वाधिक जिन-संयुक्त और स्वतन्त्र मूर्तियां उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश के दिगंबर स्थलों पर उत्कीर्ण हुईं । अतः यक्ष एवं यक्षियों के मूर्तिविज्ञानपरक विकास के अध्ययन की दृष्टि से इस क्षेत्र का विशेष महत्व है । इस क्षेत्र में दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य ऋषभ, नेमि एवं पार्श्व के साथ पारम्परिक और सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, शान्ति एवं महावीर के साथ स्वतन्त्र लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी युगल निरूपित हुए । अन्य जिनों के यक्ष-यक्षी द्विभुज और सामान्य लक्षणों वाले हैं। इस क्षेत्र में चक्रेश्वरी एवं अम्बिका की सर्वाधिक मूर्तियां बनीं ( चित्र ४४ - ४६, ५०, ५१) । साथ ही रोहिणी, मनोवेगा, गौरी, गान्धारी, पद्मावती एवं सिद्धायिका को भी कुछ मूर्तियां मिली हैं (चित्र ४७, ५५) । चक्रेश्वरी एवं पद्मावती की मूर्तियों में सर्वाधिक विकास दृष्टिगत होता है । यक्षों में केवल सर्वानुभूति, गरुड (?) एवं धरणेन्द्र की ही कुछ स्वतन्त्र मूर्तियां मिली हैं (चित्र ४९ ) । इस क्षेत्र में २४ यक्षियों के सामूहिक अंकन के भी दो उदाहरण हैं जो देवगढ़ ( मन्दिर १२, ८६२ ई०) एवं पतियानदाई (अम्बिका मूर्ति, ११वीं शती ई०) से मिले हैं (चित्र ५३) । देवगढ़ के उदाहरण में अम्बिका के अतिरिक्त अन्य किसी यक्षी के साथ पारम्परिक विशेषताएं नहीं प्रदर्शित हैं । देवगढ़ समूह की अधिकांश यक्षियां सामान्य लक्षणों वाली और समरूप, तथा कुछ अन्य जैन महाविद्याओं एवं सरस्वती आदि के स्वरूपों से प्रभावित हैं ।
गुजरात और राजस्थान में अम्बिका की सर्वाधिक मूर्तियां बनीं ( चित्र ५४ ) । चक्रेश्वरी, पद्मावती एवं सिद्धायिका की भी कुछ मूर्तियां मिली हैं (चित्र ५६ ) । यक्षों में केवल गोमुख, वरुण (?), सर्वानुभूति एवं पार्श्व की ही स्वतन्त्र मूर्तियां हैं (चित्र ४३) । सर्वानुभूति की मूर्तियां सर्वाधिक हैं । इस क्षेत्र में छठी से बारहवीं शती ई० तक सभी जिनों के साथ एक ही यक्ष-यक्षो युगल, सर्वानुभूति एवं अम्बिका, निरूपित हैं । केवल कुछ उदाहरणों में ऋषभ, पाद एवं महावीर के साथ पारम्परिक या स्वतन्त्र लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी उत्कीर्ण हैं ।
१ केवल अकोटा से छठी शती ई० के अन्त की एक स्वतन्त्र अम्बिका मूर्ति मिली है ।
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