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यक्ष-यक्षी-प्रतिमाविज्ञान 1
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गोमुख अभयमुद्रा एवं कलश से युक्त है । संग्रहालय को चार अन्य ऋषम मूर्तियों में यक्ष वृषानन नहीं है और उसकी एक भुजा में सामान्यत: धन का थैला है।
___ दक्षिण भारत-दक्षिण भारत में ऋषभ के यक्ष को वृषानन नहीं निरूपित किया गया है । वह सदैव चतुर्भुज है । यक्ष के साथ वाहन का चित्रण लोकप्रिय नहीं था । कन्नड़ शोध संस्थान संग्रहालय को एक ऋषम मूर्ति में चतुर्भुज यक्ष के करों में अभयमुद्रा, अक्षमाला, परशु एवं फल हैं।' अयहोल (कर्नाटक) के जैन मन्दिर (८वीं-९वीं शती ई०) की चतुर्भुज मति में ललित मुद्रा में विराजमान यक्ष के हाथों में पद्मकलिका, परशु, पाश एवं वरदमुद्रा हैं।२ कर्नाटक के शान्तिनाथ बस्ती की एक मूर्ति में वृषभारूढ़ यक्ष के करों में पद्म, परशु, अक्षमाला एवं फल प्रदर्शित हैं । उपर्युक्त मूर्तियों से स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में मुख्य आयुधों (परशु, अक्षमाला एवं फल) के प्रदर्शन में परम्परा का निर्वाह किया गया है। यक्ष की भुजाओं में पद्म और पाश का प्रदर्शन उत्तर भारतीय परम्परा से प्रभावित प्रतीत होता है।
विश्लेषण
सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उत्तर भारत में दसवीं शती ई० में गोमुख यक्ष की स्वतन्त्र एवं जिन-संयक्त मतियों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। बिहार, उड़ीसा एवं बंगाल से यक्ष की एक भी मति नहीं मिली है। सर्वाधिक मतियां उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश में उत्कीर्ण हुई। पर स्वतन्त्र मूर्तियां केवल गुजरात एवं राजस्थान से ही मिली हैं। ग्रन्थों के समान शिल्प में भी गोमुख का चतुर्भुज स्वरूप ही लोकप्रिय था । श्वेतांबर मूर्तियों में गज-वाहन का चित्रण नियमित था. पर दिगंबर स्थलों पर वाहन (वषम) का चित्रण केवल एक ही उदाहरण" में मिलता है। दिगंबर स्थलों की मतियों में केवल परश के प्रदर्शन में ही दिगंबर परम्परा का पालन किया गया है। दिगंबर स्थलों पर गोमुख के हाथों में पुस्तक. गदा, पद्म एवं धन का थैला में से कोई एक या दो आयुध प्रदर्शित हैं। इन आयुधों का प्रदर्शन कलाकारों की कल्पना या किसी ऐसी परम्परा की देन है जो सम्प्रति उपलब्ध नहीं है । श्वेतांबर स्थलों की मूर्तियों में भी गोमुख के साथ केवल गजवाहन एवं पाश के प्रदर्शन में ही परम्परा का निर्वाह किया गया है। इस क्षेत्र में गोमुख की दो भुजाओं में अधिकांशतः अंकुश एवं धन का थैला प्रदर्शित हैं जो सर्वानुभूति यक्ष का प्रभाव है। दिगंबर स्थलों की तुलना में श्वेतांबर स्थलों पर गोमूख की लाक्षणिक विशेषताएं अधिक स्थिर रहीं।
गोमुख की धारणा निश्चित ही शिव से प्रभावित है। यक्ष का गोमुख होना, उसका वृषभ वाहन और हाथों में परशु एवं पाश जैसे आयुधों का प्रदर्शन शिव के ही प्रभाव का संकेत देता है। राजपूताना संग्रहालय, अजमेर की मूर्ति (२७०) में गोमुख के एक कर में सर्प भी प्रदर्शित है। डा० बनर्जी ने गोमुख यक्ष को शिव का पशु एवं मानव रूप में संयुक्त अंकन माना है। गोमुख प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभनाथ) का यक्ष है। ऋषभनाथ को जैन धर्म का संस्थापक एवं महादेव बताया गया है। गोमुख के शीर्ष भाग के धर्मचक्र को इस आधार पर आदिनाथ के धर्मोपदेश का प्रतीकात्मक अंकन माना जा सकता है।
१ अन्निगेरी, ए० एम०, ए गाइड टू दि कन्नड़ रिसर्च इन्स्टिट्यूट म्यूजियम, धारवाड़, १९५८, पृ० २७ २ संकलिया, एच० डी०, 'जैन यक्षज ऐण्ड यक्षिणीज', बु०ड०का०रि०ई०, खं० १, अं० २-४, पृ० १६० ३ आकिअलाजिकल सर्वे ऑव मैसूर, ऐनुअल रिपोर्ट, १९३९, भाग ३, पृ० ४८ ४ दिगम्बर स्थलों की कुछ मूर्तियों में गोमुख द्विभुज है। ५ स्थानीय संग्रहालय, खजुराहो के ८ ६ बनर्जी, जे० एन०, पू०नि०, पृ० ५६२ ७ भट्टाचार्य, बी० सी०, पू०नि०, पृ० ९६
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