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[ जैन प्रतिमाविज्ञान श्वेतांबर परम्परा का निर्वाह किया गया है। लूणवसही के गूढ़मण्डप के दक्षिणी प्रवेश द्वार के दहलीज पर चतुर्भुजा पद्मावती की एक छोटी मूर्ति उत्कीर्ण है । यक्षी का वाहन मकर है और उसके हाथों में वरदाक्ष, सर्प, पाश एवं फल प्रदर्शित हैं । मकर वाहन का प्रदर्शन परम्परासम्मत नहीं है, पर हाथों में सर्प एवं पाश के प्रदर्शन के आधार पर देवी की पद्मावती से पहचान की जा सकती है । फिर दहलीज के दूसरे छोर पर पार्श्व यक्ष की मूर्ति भी उत्कीर्ण है । मकर वाहन का प्रदर्शन सम्भवतः पार्श्व यक्ष के कूर्म वाहन से प्रभावित है ।
विमलवसही की देवकुलिका ४९ के मण्डप के वितान पर षोडशभुजा पद्मावती की एक मूर्ति है ।' सप्तसपफणों के छत्र से 'युक्त एवं ललितमुद्रा में विराजमान देवी के आसन के समक्ष नाग (वाहन) उत्कीर्ण है। देवी के पावों में नागी की दो आकृतियां अंकित हैं। देवी के दो ऊपरी हाथों में सर्प है, दो हाथ पार्श्व की नागी मूर्तियों के मस्तक पर हैं तथा शेष में वरदमुद्रा, त्रिशूल -घण्टा, खड्ग, पाश, त्रिशूल, चक्र (छल्ला), खेटक, दण्ड, पद्मकलिका, वज्र, सर्प एवं जलपात्र प्रदर्शित हैं ।
(ख) जिन - संयुक्त मूर्तियां - इस क्षेत्र की पार्श्वनाथ की मूर्तियों में यक्षी के रूप में अम्बिका निरूपित है । केवल विमलवसही (देवकुलिका ४) एवं ओसिया ( बलानक) की पार्श्वनाथ की दो मूर्तियों (११ वीं - १२ वीं शती ई०) में ही पारम्परिक यक्षी आमूर्तित है । विमलवसही की मूर्ति में तीन सर्पफणों के छत्र से युक्त चतुर्भुजा यक्षी कुक्कुट- सर्प पर आरूढ़ है और हाथों में पद्म, पाश, अंकुश एवं फल धारण किये है। ओसिया की मूर्ति में सात सर्पफणों के छत्र से युक्त यक्षी का वाहन सर्प है । द्विभुजा यक्षी की अवशिष्ट एक भुजा में खड्ग है ।
उत्तरप्रदेश-मध्यप्रदेश (क) स्वतन्त्र मूर्तियां - इस क्षेत्र की प्राचीनतम मूर्ति देवगढ़ के मन्दिर १२ (८६२ ई० ) पर है । पार्श्वनाथ के साथ 'पद्मावती' नाम की चतुर्भुजा यक्षी आमूर्तित है जिसके हाथों में वरदमुद्रा, चक्राकार सनालपद्म, लेखनी पट्ट (या फलक) एवं कलश प्रदर्शित हैं । २ यक्षी का निरूपण परम्परासम्मत नहीं है । दसवीं शती ई० की चार द्विभुजी मूर्तियां ग्यारसपुर के मालादेवी मन्दिर से मिली हैं। तीन मूर्तियां मण्डप के जंघा पर उत्कीर्ण हैं । इनमें त्रिभंग में खड़ी यक्षी के मस्तक पर सर्पफणों के छत्र प्रदर्शित हैं । उत्तरी और दक्षिणी जंघा की दो मूर्तियों में यक्षी के करों में व्याख्यानमुद्रा - अक्षमाला एवं जलपात्र हैं। पश्चिमी जंघा की मूर्ति में दाहिने हाथ में पद्म है और बायां एक गदा पर स्थित है । * ज्ञातव्य है कि देवगढ़ एवं खजुराहो की ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० की मूर्तियों में भी पद्मावती के साथ पद्म एवं गदा प्रदर्शित हैं । मालादेवी मन्दिर के गर्भगृह की पश्चिमी भित्ति की मूर्ति में तीन सर्पफणों के छत्र से युक्त यक्षी के अवशिष्ट दाहिने हाथ में पद्म है । ल० दसवीं शती ई० की एक चतुर्भुज मूर्ति त्रिपुरी के बालसागर सरोवर के मन्दिर में सुरक्षित है। " सात सर्प फणों के छत्र से युक्त पद्मवाहना पद्मावती के करों में अभयमुद्रा, समालपद्म, सनालपद्म एवं कलश हैं । उपर्युक्त से स्पष्ट है कि दिगंबर स्थलों पर दसवीं शती ई० तक पद्मावती के साथ केवल सर्पफणों के छत्र ( ३, ५ या ७) एवं हाथ में पद्म का प्रदर्शन हो नियमित हो सका था । यक्षी के साथ कुक्कुट - सर्प (वाहन) एवं पाश और अंकुश का प्रदर्शन ग्यारहवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ ।
ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० की दिगंबर परम्परा को कई मूर्तियां देवगढ़, खजुराहो, राज्य संग्रहालय, लखनऊ एवं शहडोल से ज्ञात हैं । इन स्थलों की मूर्तियों में पद्मावती के मस्तक पर सर्पफणों के छत्र और करों में पद्म, कलश, अंकुश,
१ देवी महाविद्या वैरोटया भी हो सकती है । पद्मावती से पहचान के मुख्य आधार करों के आयुध एवं शीर्षभाग में सर्पफणों के छत्र के चित्रण 1
२ जि०इ० दे०, पृ० १०२, १०५, १०६
३ दिगंबर ग्रन्थों में द्विभुजा पद्मावती का अनुल्लेख है । पर दिगंबर स्थलों पर द्विभुजा पद्मावती का निरूपण लोकप्रिय था ।
४ गदा का निचला भाग अंकुश की तरह निर्मित है ।
५ शास्त्री, अजयमित्र, 'त्रिपुरी का जैन पुरातत्व', जैन मिलन, वर्ष १२, अं० २, पृ०७१
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