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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
कुछ स्थलों की मूर्तियों में पद्म, नाग, कूर्म और मकर को भी पद्मावती के वाहन के रूप में दरशाया गया है । " परम्परा के अनुरूप यक्षी के करों में पाश एवं अंकुश का प्रदर्शन मुख्यतः देवगढ़, खजुराहो, विमलवसही, कुम्भारिया एवं कुछ अन्य स्थलों की ही मूर्तियों में प्राप्त होता है । नागराज धरण से सम्बन्धित होने के कारण ही देवगढ़, खजुराहो, शहडोल, ओसिया, विमलवसही एवं लूणवसही की मूर्तियों में पद्मावती के हाथ में सर्प प्रदर्शित किया गया । २
(२४) मातंग यक्ष
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शास्त्रीय परम्परा
मातंग जिन महावीर का यक्ष है । दोनों परम्पराओं में मातंग को द्विभुज और गजारूढ़ बताया गया है । दिगंबर परम्परा में मातंग के मस्तक पर धर्मचक्र के प्रदर्शन का भी निर्देश है ।
श्वेतांबर परम्परा — निर्वाणकलिका में गजारूढ़ मातंग के हाथों में नकुल एवं बीजपूरक वर्णित हैं । अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं लक्षणों के उल्लेख हैं ।
दिगंबर परम्परा - प्रतिष्ठासारसंग्रह में द्विभुज मातंग के मस्तक पर उसका वाहन मुद्ग" बताया गया है ।" यक्ष के करों में वरदमुद्रा एवं मातुलिंग करने वाले अन्य सभी ग्रन्थों में मातंग का वाहन गज है ।" यक्ष का गजवाहन उसके मातंग (गज) नाम से प्रभावित हो सकता है । मस्तक पर धर्मचक्र का प्रदर्शन यक्ष के महावीर द्वारा पुनः स्थापित एवं व्यवस्थित जैन धर्म एवं संघ के रक्षक होने का सूचक हो सकता है ।" गजवाहन एवं हाथ में नकल का प्रदर्शन हिन्दू कुबेर का भी प्रभाव सकता है। एक ग्रन्थ में मातंग को यक्षराज भी कहा गया है, जो कुबेर का ही दूसरा नाम है ।"
१ विमलवसही, राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जी ३१६), लूणवसही, त्रिपुरी, देवगढ़, शहडोल एवं बारभुजो गुफा २ झालरापाटन एवं बारभुजी गुफा की मूर्तियों में भुजा में सर्पं नहीं प्रदर्शित है ।
३ मातंगयक्षं श्यामवर्णं गजवाहनं द्विभुजं दक्षिणे नकुलं वामे बीजपूरकमिति । निर्वाणकलिका १८.२४ ४००पु०च० १०.५.११; पद्मानन्दमहाकाव्यः परिशिष्ट - महावीर २४७ मन्त्राधिराजकल्प ३.४८; आचारदिनकर ३४, पृ० १७५; देवतामूर्तिप्रकरण ७.६४; रूपमण्डन ६.२२
५ एक प्रकार का समुद्री पक्षी या मूंगा ।
६ बी० सी० भट्टाचार्य ने प्रतिष्ठासारसंग्रह की आरा की पाण्डुलिपि के आधार पर गजवाहन का उल्लेख किया है । द्रष्टव्य, भट्टाचार्य, बी० सी० पू०नि, पृ० ११८
७ वर्धमान जिनेन्द्रस्य यक्षो मातंगसंज्ञकः ।
धर्मचक्र के चित्रण का निर्देश है और वर्णित हैं ।" समान आयुधों का उल्लेख
द्विभुजो मुद्गवर्णोसौ वरदो मुद्गवाहनः ॥
मातुलिंगं करे धत्ते धर्मचक्रं च मस्तके । प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.७२-७३
८ मुद्गप्रभो मूर्धनि धर्मचक्रं बिभ्रत्फलं वामकरेथयच्छन् ।
वरं करिस्थो हरिकेतु भक्तो मातंग यक्षोंगतु तुष्टिमिष्टया || प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१५२
द्रष्टव्य, प्रतिष्ठातिलकम् ७.२४, पृ० ३३८, अपराजितपुच्छा २२१.५६
९ भट्टाचार्य, बी० सी० पू०नि०, पृ० ११९
१० मातंगो यक्षराट् च द्विरदकृतगतिः श्यामरुग् रातु सौरव्यम् ॥
वर्द्धमानषट् त्रिशिका (चतुरविजयमुनि प्रणीत) ।
(जैन स्तोत्र सन्दोह, सं० अमरविजय मुनि, खं० १, अहमदाबाद, १९३२, पृ० ६६ से उद्धृत) |
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