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यक्ष -पक्षी-प्रतिमाविज्ञान ]
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श्वेतांबर परम्परा - निर्वाणकलिका में चतुर्मुख और त्रिनेत्र ब्रह्म के दाहिने हाथों में मातुलिंग, मुद्गर, पाथ एवं अभयमुद्रा और बायें में नकुल, गदा, अंकुश एवं अक्षसूत्र का वर्णन है ।' अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं आयुधों का उल्लेख है । मन्त्राधिराजकल्प में अभयमुद्रा के स्थान पर वरदमुद्रा का उल्लेख है । आचारदिनकर में यक्ष दस भुजाओं और बारह नेत्रों वाला है । उसकी आठ भुजाओं में निर्वाणकलिका के आयुधों का और शेष दो में पाश एवं पद्म का उल्लेख है । * दिगंबर परम्परा – प्रतिष्ठासारसंग्रह में चतुर्मुख ब्रह्म सरोज पर आसीन है । ग्रन्थ में उसके आयुधों का अनुल्लेख है । " प्रतिष्ठासारोद्धार में केवल छह हाथों के ही आयुधों का उल्लेख है । दाहिने हाथों में बाण, खड्ग, वरदमुद्रा और बायें में धनुष, दण्ड, खेटक वर्णित हैं । प्रतिष्ठातिलकम् में यक्ष की केवल सात भुजाओं के ही आयुध स्पष्ट हैं । प्रतिष्ठासारोद्धार से भिन्न प्रतिष्ठातिलकम् में वज्र और परशु का उल्लेख है, किन्तु बाण का अनुल्लेख है ।" अपराजितपृच्छा में ब्रह्म चतुर्भुज है और उसका वाहन हंस है । यक्ष के करों में पाश, अंकुश, अभयमुद्रा और वरदमुद्रा का वर्णन है । " यक्ष का नाम (ब्रह्म), उसका चतुर्मुख होना, पद्म और हंसवाहनों के उल्लेख तथा एक हाथ में अक्षमाला का प्रदर्शन - ये सभी बातें ब्रह्मयक्ष के निरूपण में हिन्दू देव ब्रह्मा प्रजापति का प्रभाव दरशाती हैं । दक्षिण भारतीय परम्परा - दिगंबर ग्रन्थ में पद्मकलिका पर आसीन अष्टभुज ब्रह्मेश्वर ( या ब्रह्मा ) यक्ष को त्रिनेत्र एवं चतुर्मुख बताया गया है । यक्ष के छह हाथों में गदा, खड्ग, खेटक एवं दण्ड जैसे आयुधों और शेष दो में अभय एवं कटक - मुद्रा का उल्लेख है । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में सिंह पर आरूढ़ यक्ष अष्टभुज है और उसके हाथों में खड्ग, खेटक, बाण, धनुष, परशु, वज्र, पाश एवं अभय - ( या वरद - ) मुद्रा का वर्णन है । यक्ष-यक्षी-लक्षण में पद्म वाहन से युक्त चतुर्मुख एवं अष्टभुज यक्ष के करों में खड्ग, खेटक, वरदमुद्रा, बाण, धनुष, दण्ड, परशु एवं वज्र के प्रदर्शन का निर्देश है ।" उपर्युक्त से स्पष्ट है कि दोनों परम्पराओं के आयुधों एवं वाहन के सन्दर्भ में विवरण उत्तर भारतीय दिगंबर परम्परा से प्रभावित हैं ।
ब्रह्म यक्ष की एक भी स्वतन्त्र या जिन-संयुक्त मूर्ति नहीं मिली है । (१०) अशोका ( या मानवी) यक्षी
शास्त्रीय परम्परा
अशोका (या मानवी) जिन शीतलनाथ की यक्षी है । श्वेतांबर परम्परा में चतुर्भुजा अशोका ( या गोमेधिका) पद्मवाना है और दिगंबर परम्परा में चतुर्भुजा मानवी शूकरवाना है ।
१ ब्रह्मयक्षं चतुर्मुखं त्रिनेत्रं धवलवर्णं पद्मासनमष्टभुजं मातुलिंगमुद्गरपाशाभययुक्तदक्षिणपाणि नकुलगदांकुशाक्षसूत्रान्वितवामपाणि चेति । निर्वाणकलिका १८.१०
२ त्रि००पु०च० ३.८.१११ - १२; पद्मानन्दमहाकाव्य : परिशिष्ट-शीतलनाथ १७-१८
३ मन्त्राधिराजकल्प ३.३४
४ वसुमितभुजयुक् चतुर्वक्त्रभाग् द्वादशाक्षो रुचा सरसिजविहितासनो मातुलिंगाभये पाशयुग्मुद्गरं दधदतिगुणमेवहस्तोकरे दक्षिणे चापि वामे गदां सृणिनकुलसरोद्भवाक्षावली ब्रह्मनामा सुपर्वोत्तमः । आचारदिनकर ३४, पृ० १७४ ५ शीतलस्य जिनेन्द्रस्य ब्रह्मयक्षचतुर्मुखः ।
अष्टबाहुः सरोजस्थः, श्वेतवर्णः प्रकीर्तितः ॥ प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.३५
६ श्रीवृक्षकेतननतो धनुदण्डखेटवज्ञा - (? वज्रा ) यसव्यसय इन्दुसितोम्बुजस्थ: ।
ब्रह्मासरश्वधितिखड् गवरप्रदानव्यग्रान्यपाणिरुपयातु
चतुर्मुखोर्चाम् || प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१३८
७ सचापदण्डोजित खेटवज्रसव्योद्धपाणि नुतशीतलेशम् ।
सव्यान्यहस्तेषु परश्वसीष्टदानं यजे ब्रह्मसमाख्ययक्षम् ॥ प्रतिष्ठातिलकम् ७.१०, पृ० ३३४
८ पाशाङ्कुशाभयवरा ब्रह्मा स्याद्धं सवाहनः । अपराजितपृच्छा २२१.४९
९ रामचन्द्रन, टी० एन०, पू०नि०, पृ० २०२-२०३
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