________________
यक्ष-यक्षी-प्रतिमाविज्ञान ]
विदिता एवं वैरोटी के स्वरूप १३वीं महाविद्या वैरोट्या से प्रभावित हैं। विदिता के सन्दर्भ में यह प्रभाव हाथ में सर्प के प्रदर्शन तक सीमित है, पर वैरोटी के सन्दर्भ में नाम, वाहन एवं दो हाथों में सर्प का प्रदर्शन-ये सभी महाविद्या के प्रभाव प्रतीत होते हैं ।'
दक्षिण भारतीय परम्परा-दिगंबर ग्रन्थ में सर्पवाहना यक्षी चतुर्भुजा है और उसके दो करों में सर्प एवं शेष दो में अभय-एवं कटक-मुद्रा हैं । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में चतुर्भुजा यक्षी मृगवाहना (कृष्णसार) है और उसके हाथों में शर, चाप, वरदमुद्रा एवं पद्म का उल्लेख है। यक्ष-यक्षी-लक्षण में सर्पवाहना (गोनस) यक्षी के दो करों में सर्प एवं शेष दो में बाण और धनुष का वर्णन है ।२ उपर्युक्त से स्पष्ट है कि दक्षिण भारतीय परम्परा यक्षी के निरूपण में सामान्यतः उत्तर भारतीय दिगंबर परम्परा से सहमत है।
मूर्ति-परम्परा
यक्षी की दो स्वतन्त्र मूर्तियां मिली हैं। दोनों मूर्तियां दिगंबर परम्परा की हैं और क्रमशः देवगढ़ (मन्दिर १२, ८६२ ई०) एवं बारभुजी गुफा के सामूहिक चित्रणों में उत्कीर्ण हैं। देवगढ़ में विमलनाथ के साथ 'सुलक्षणा' नाम की सामान्य लक्षणों वाली द्विभुजा यक्षी आमूर्तित है। यक्षी का दाहिना हाथ जानु पर है और वायें में चामर प्रदर्शित है। बारभुजी गुफा में विमलनाथ की यक्षी अष्टभुजा है और उसका वाहन सारस है। यक्षी के दक्षिण करों में वरदमुद्रा, बाण, खड़ग एवं परशु और वाम में वज्र, धनुष, शूल एवं खेटक प्रदर्शित हैं। यक्षी का निरूपण परम्परासम्मत नहीं है । राज्य संग्रहालय, लखनऊ की जिन-संयुक्त मूर्ति (जे ७९१) में द्विभुजा यक्षी अभयमुद्रा एवं घट से युक्त है।
(१४) पाताल यक्ष
शास्त्रीय परम्परा
पाताल जिन अनन्तनाथ का यक्ष है। दोनों परम्परा के ग्रन्थों में पाताल को त्रिमुख, षड्भुज और मकर पर
आरूढ़ कहा गया है।
श्वेतांबर परम्परा-निर्वाणकलिका में पाताल यक्ष के दाहिने हाथों में पद्म, खड्ग एवं पाश और बायें में नकल. फलक एवं अक्षसत्र का उल्लेख है। अन्य ग्रन्थों में भी यही आयुध प्रदर्शित हैं। मन्त्राधिराजकल्प में पाताल को त्रिनेत्र कहा गया है । आचारदिनकर में अक्षसूत्र के स्थान पर मुक्ताक्षावलि का उल्लेख है।"
१ श्वेतांबर परम्परा में महाविद्या वैरोट्या का वाहन सर्प है और उसके दो करों में सर्प एवं अन्य में खड्ग और
खेटक प्रदर्शित हैं। २ रामचन्द्रन, टी० एन०, पू०नि०, पृ० २०४ ३ जि०३०३०, पृ० १०३, १०७ ४ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३१ ५ पातालयक्षं त्रिमुखं रक्तवर्ण मकरवाहनं षड्भुजं पद्मखड्गपाशयुक्तदक्षिणपाणिं नकुलफलकाक्षसूत्रयुक्तवामपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका १८.१४ ६ त्रिपु०१० ४.४.२००-२०१; पद्मानन्दमहाकाव्य : परिशिष्ट-अनन्त १८-१९; मन्त्राधिराजकल्प ३.३८ ७ आचारदिनकर ३४, पृ० १७४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org