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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
कलश उत्कीणं हैं। यहां उल्लेखनीय है कि दिगंबर स्थलों की चार अन्य जिन मूर्तियों (९वीं-१२वीं शती ई०) में मूलनायक की आकृति के नीचे एक स्त्री को ठीक इसी प्रकार शय्या पर विश्राम करते हुए आमूर्तित किया गया है। देबला मित्रा ने तीन उदाहरणों में मुनिसुव्रत के साथ निरूपित उपर्युक्त स्त्री आकृति की पहचान मुनिसुव्रत की यक्षी से की है।
राज्य संग्रहालय, लखनऊ एवं विमलवसही की मुनिसुव्रत की तीन मूर्तियों में यक्षी के रूप में अम्बिका निरूपित है।
(२१) भृकुटि यक्ष शास्त्रीय परम्परा
भृकुटि जिन नमिनाथ का यक्ष है । दोनों परम्पराओं में वृषभारूढ़ भृकुटि को चतुर्मुख एवं अष्टभुज कहा गया है।
श्वेतांबर परम्परा-निर्वाणकलिका में त्रिनेत्र और चतुर्मुख भृकुटि का वाहन वृषभ है । भृकुटि के दाहिने हाथों में मातुलिंग, शक्ति, मुद्गर, अभयमुद्रा एवं बायें में नकुल, परशु, वज्र, अक्षसूत्र का उल्लेख है। अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं लक्षणों के प्रदर्शन का निर्देश है। आचारदिनकर में द्वादशाक्ष यक्ष की भुजा में अक्षमाला के स्थान पर मौक्तिकमाला का उल्लेख है। देवतामूर्तिप्रकरण में चार करों में मातुलिंग, शक्ति, मुद्गर एवं अभयमुद्रा वर्णित हैं; शेष करों के आयुधों का अनुल्लेख है।'
दिगंबर परम्परा–प्रतिष्ठासारसंग्रह में चतुर्मुख भृकुटि का वाहन नन्दी है, किन्तु आयुधों का अनुल्लेख है।' प्रतिष्ठासारोद्धार में यक्ष के करों में खेटक, खड्ग, धनुष, बाण, अंकुश, पद्म, चक्र एवं वरदमुद्रा वणित हैं ।' अपराजितपृच्छा
१ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३२ २ बजरामठ (ग्यारसपुर), वैभार पहाड़ी (राजगिर),आशुतोष संग्रहालय, कलकत्ता, पी०सी० नाहर संग्रह, कलकत्ता।
वैभार पहाड़ी एवं आशुतोष संग्रहालय की जिन मूर्तियों में मुनिसुव्रत का कूर्मलांछन भी उत्कीर्ण है। द्रष्टव्य, जै०क०स्था०, खं० १, पृ० १७२ ३ स्त्री के समीप कोई बालक आकृति नहीं उत्कीर्ण है, अतः इसे जिन की माता का अंकन नहीं माना जा सकता
है। फिर माता का जिन मूतियों के पादपीठों पर जिनों के चरणों के नीचे अंकन भारतीय परम्परा के विरुद्ध भी है । दूसरी ओर बारभुजी गुफा में यक्षियों के समूह में मुनिसुव्रत के साथ इस देवी का चित्रण उसके यक्षी होने
का सूचक है। ४ मित्रा, देबला, 'आइकानोग्राफिक नोट्स', ज०ए०सो०बं०, खं० १, अं० १, पृ० ३७-३९ ५ भृकुटियक्षं चतुर्मुखं त्रिनेत्रं हेमवर्णं वृषभवाहनं अष्टभुजं मातुलिंगशक्तिमुद्गराभययुक्तदक्षिणपाणि नकुलपरशुवज्राक्ष
सूत्रवामपाणि चेति । निर्वाणकलिका १८.२१ ६ त्रिशपु०च० ७.११.९८-९९; पद्मानन्दमहाकाव्य : परिशिष्ट-नमिनाथ १८-१९; मन्त्राधिराजकल्प ३.४५ ७ आचारदिनकर ३४, पृ० १७५ . ८ भृकुटि (नेमि ? नमि) नाथस्य पीनस्त्र्यक्षश्चतुर्मुखः ।
वृषवाहो मातुलिंगं शक्तिश्च मुद्गराभयौ ॥ देवतामूर्तिकरण ७.५८ ९ नमिनाथजिनेन्द्रस्य यक्षो भृकुटिसंज्ञकः ।
अष्टबाहुश्चतुर्वक्त्रो रक्ताभो नन्दिवाहनः ॥ प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.६३ १० खेटासिकोदण्डशरांकुशाब्जचक्रेष्टदानोल्लसिताष्टहस्तम् ।
चतुर्मुख नन्दिगमुत्फलाकभक्तं जपाभं भृकुटिं यजामि ॥ प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१४९ । द्रष्टव्य, प्रतिष्ठातिलकम् ७.२१, पृ० ३३७
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