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यक्ष -पक्षी-प्रतिमाविज्ञान ]
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प्रदर्शित हैं । बर्जेस ने कन्नड़ परम्परा पर आधारित चतुर्भुजा कुष्माण्डिनी का एक चित्र भी प्रकाशित किया है जिसमें सिंहवाहना यक्षी के दोनों पुत्र गोद में स्थित हैं और उसके दो ऊपरी हाथों में खड्ग और चक्र प्रदर्शित हैं । '
विश्लेषण
अध्ययन से स्पष्ट है कि उत्तर भारत में दक्षिण भारत की अपेक्षा अम्बिका की अधिक मूर्तियां उत्कीर्ण हुई । जैन देवकुल की प्राचीनतम यक्षी होने के कारण ही शिल्प में सबसे पहले अम्बिका को मूर्त अभिव्यक्ति मिली । ल० छठीसातवीं शती ई० में अम्बिका की स्वतन्त्र एवं जिन संयुक्त मूर्तियों का निरूपण प्रारम्भ हुआ। सभी क्षेत्रों में अम्बिका का द्विभुज रूप ही विशेष लोकप्रिय था । जिन-संयुक्त मूर्तियों में तो अम्बिका सदैव द्विभुजा ही है । 3 उसके साथ सिंहवाहन एवं आलुम्बि और पुत्र का चित्रण सभी क्षेत्रों में लोकप्रिय था । शीर्षभाग में आम्रफल के गुच्छक और पार्श्व में दूसरे पुत्र का अंकन भी नियमित था । श्वेतांबर स्थलों पर उपर्युक्त लक्षणों का प्रदर्शन दिगंबर स्थलों की अपेक्षा कुछ पहले ही प्रारम्भ हो गया था । श्वेतांबर स्थलों (अकोटा) पर इन विशेषताओं का प्रदर्शन छठी-सातवीं शती ई० में और दिगंबर स्थलों पर नवीं-दसवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ । दिगंबर स्थलों की जिन-संयुक्त मूर्तियों में सिंहवाहन एवं दूसरे पुत्र का प्रदर्शन दुर्लभ है । यह भी ज्ञातव्य है कि श्वेतांबर स्थलों पर नेमि के साथ सदैव अम्बिका ही निरूपित है, पर दिगंबर स्थलों पर कभीकभी सामान्य लक्षणों वाली अपारम्परिक यक्षी भी आमूर्तित है ।
उल्लेखनीय है कि दिगंबर ग्रन्थों में द्विभुजा अम्बिका का ध्यान किया गया है ।" पर दिगंबर स्थलों पर अम्बिका की द्विभुज और चतुर्भुज दोनों ही मूर्तियां उत्कीर्ण हुईं । दिगंबर परम्परा की सर्वाधिक चतुर्भुजी मूर्तियां खजुराहो से मिली हैं । दूसरी ओर श्वेतांबर परम्परा में अम्बिका का चतुर्भुज रूप में ध्यान किया गया है, पर श्वेतांबर स्थलों पर उसकी द्विभुज मूर्तियां ही अधिक संख्या में उत्कीर्ण हुईं । केवल कुम्भारिया, विमलवसही, जालोर एवं तारंगा से ही कुछ चतुर्भुजी मूर्तियां मिली हैं। श्वेतांबर स्थलों पर परम्परा के अनुरूप चतुर्भुजा अम्बिका के ऊपरी हाथों में पारा एवं अंकुश नहीं मिलते हैं। पर दिगंबर स्थलों की मूर्तियों में ऊपरी हाथों में पाश एवं अंकुश ( या त्रिशूलयुक्त घंटा) प्रदर्शित हुए हैं । श्वेतांबर स्थलों पर अम्बिका की स्थानक मूर्तियां दुर्लभ हैं, पर दिगंबर स्थलों से आसीन और स्थानक दोनों ही मूर्तियां
मिली हैं । श्वेतांबर स्थलों पर जहां अम्बिका के निरूपण में एकरूपता प्राप्त होती है, वहीं दिगंबर स्थलों पर विविधता देखी जा सकती है । दिगंबर स्थलों पर चतुर्भुजा अम्बिका के दो हाथों में आम्रलुम्बि एवं पुत्र और शेष दो हाथों में पद्म, पद्म-पुस्तक, पुस्तक, अंकुश, पारा, दर्पण एवं त्रिशूल-घण्टा में से कोई दो आयुध प्रदर्शित हैं । खजुराहो की एक अम्बिका मूर्ति (पुरातात्विक संग्रहालय, खजुराहो, १६०८ ) में देवी के साथ यक्ष-यक्षी युगल का उत्कीर्णन अम्बिका मूर्ति के विकास की पराकाष्ठा का सूचक है ।
१ बर्जेस, जे०, 'दिगंबर जैन आइकानोग्राफी', इण्डि० एण्टि०, खं० ३२, पृ० ४६३, फलक ४, चित्र २२
२ प्रारम्भिकतम मूर्तियां अकोटा (गुजरात) से मिली हैं ।
३ कुंभारिया एवं विमलवसही की कुछ नेमिनाथ मूर्तियों में अम्बिका चतुर्भुजा भी है ।
४ देवगढ़, खजुराहो, ग्यारसपुर (मालादेवी मन्दिर) एवं राज्य संग्रहालय, लखनऊ
५ केवल दिगंबर परम्परा के तांत्रिक ग्रन्थ में ही चतुर्भुजा एवं अष्टभुजा अम्बिका का ध्यान किया गया है।
६ विमलवसही एवं तारंगा की दो मूर्तियों में चतुर्भुजा अम्बिका के साथ पाश प्रदर्शित है ।
७ खजुराहो, देवगढ़ एवं राज्य संग्रहालय, लखनऊ
८ एक स्थानक मूर्ति तारंगा के अजितनाथ मन्दिर पर है ।
९ तारंगा, जालोर एवं विमलवसही की तीन चतुर्भुज मूर्तियों में अम्बिका के निरूपण में रूपगत भिन्नता प्राप्त होती है । अन्य उदाहरणों में अम्बिका के तीन हाथों में आम्रलुम्बि और चौथे में पुत्र हैं ।
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