Book Title: Jain Pratimavigyan
Author(s): Maruti Nandan Prasad Tiwari
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 240
________________ २२२ [ जैन प्रतिमाविज्ञान ( या कलश) हैं । उपर्युक्त से स्पष्ट है कि देवगढ़ में पारम्परिक एवं सामान्य लक्षणों वाले यक्ष का निरूपण साथ-साथ लोकप्रिय था। ग्यारसपुर के मालादेवी मन्दिर एवं बजरामठ तथा खजुराहो की नेमिनाथ की मूर्तियों (१०वीं - १२वीं शती ई०) द्विभुज यक्ष सर्वानुभूति है । यक्ष के बायें हाथ में धन का थैला' और दाहिने में अभयमुद्रा (या फल ) हैं । विश्लेषण इस सम्पूर्ण अध्ययन से ज्ञात होता है कि उत्तर भारत में जैन यक्षों में सर्वानुभूति सर्वाधिक लोकप्रिय था । ल० छठी शती ई० में सर्वानुभूति की जिन-संयुक्त और आठवीं-नवीं शती ई० में स्वतन्त्र : मूर्तियों का उत्कीर्णन प्रारम्भ हुआ । सर्वाधिक स्वतन्त्र मूर्तियां दसवीं और ग्यारहवीं शती ई० के मध्य उत्कीर्ण हुईं । यक्ष के हाथ में धन के थैले का प्रदर्शन छठी शती ई० में ही प्रारम्भ हो गया । पर गजवाहन का चित्रण सातवीं-आठवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ । स्मरणीय है कि गजवाहन का अंकन केवल श्वेतांबर स्थलों पर ही हुआ है । दिगंबर स्थलों पर गज के स्थान पर निधियों के सूचक घटों के उत्कीर्णन की परम्परा थी । दिगंबर स्थलों पर सर्वानुभूति का कोई एक रूप नियत नहीं हो सका । 3 श्वेतांबर स्थलों पर गजारूढ़ यक्ष के करों में धन के थैले के अतिरिक्त अंकुश, पाश एवं फल ( या अभय-या - वरदमुद्रा) का नियमित प्रदर्शन हुआ है । दिगंबर स्थलों पर धन के थैले के अतिरिक्त पद्म, गदा एवं पुस्तक का भी अंकन प्राप्त होता है । घाणेराव एवं कुम्भारिया की कुछ श्वेतांबर मूर्तियों में भी सर्वानुभूति के साथ पद्म, गदा और पुस्तक प्रदर्शित हैं । (२२) अम्बिका ( या कुष्माण्डी) यक्षी शास्त्रीय परम्परा अम्बिका (या कुष्माण्डी) जिन नेमिनाथ की यक्षी है । दोनों परम्पराओं में सिंहवाहना यक्षी के करों में आलुम्बि एवं बालक के प्रदर्शन का निर्देश है । श्वेतांबर परम्परा — निर्वाणकलिका में सिंहवाहना कुष्माण्डी चतुर्भुजा है और उसके दाहिने हाथों में मातुलिंग एवं पाश और बायें में पुत्र एवं अंकुश हैं । " समान लक्षणों का उल्लेख करनेवाले अन्य ग्रन्थों में मातुलिंग के स्थान पर आलुम्बि' का उल्लेख है । मन्त्राधिराजकल्प में हाथ में बालक के प्रदर्शन का उल्लेख नहीं है । ग्रन्थ के अनुसार अम्बिका १ खजुराहो की एक मूर्ति ( मन्दिर १० ) में यक्ष की भुजा में धन का थैला नहीं है । २ स्वेतांबर स्थलों पर दिगंबर स्थलों की तुलना में यक्ष की अधिक मूर्तियां उत्कीर्ण हुईं । ३ दिगंबर स्थलों पर केवल धन के थैले का प्रदर्शन ही नियमित था । ४ विस्तार के लिए द्रष्टव्य, शाह यू०पी०, 'आइकानोग्राफी ऑव दि जैन गाडेस अम्बिका', ज०यू० बां०, खं० ९, भाग २, १९४० - ४१, पृ० १४७-६९; तिवारी, एम०एन०पी०, 'उत्तर भारत में जैन यक्षी अम्बिका का प्रतिमानिरूपण', संबोधि, खं० ३, अं० २-३, दिसंबर १९७४, पृ० २७-४४ ५ कूष्माण्डों देवीं कनकवर्णा सिंहवाहनां चतुर्भुजां मातुलिंगपाशयुक्तदक्षिणकरां पुत्रांकुशान्वितवामकरां चेति ॥ निर्वाणकलिका १८.२२; द्रष्टव्य देवतामूर्तिप्रकरण ७.६१ । ज्ञातव्य है कि कुछ श्वेतांबर ग्रन्थों (चतुविशतिकाauraट्टकृत श्लोक ८८, ९६) में द्विभुजा अम्बिका का भी ध्यान किया गया है। ६ अम्बादेवी कनककान्तिरुचिः सिंहवाहना चतुर्भुजा आम्रलुम्बिपाशयुक्तदक्षिणकरद्वया पुत्रांकुशासक्तवामकरद्वया च । प्रवचनसारोद्धार २२, पृ० ९४ द्रष्टव्य, त्रि०श०पु०च० ८.९.३८५-८६ आचारदिनकर ३४, पृ० १७७; पद्मानन्द महाकाव्य : परिशिष्ट - नेमिनाथ ५७-४८; रूपमण्डन ६. १९ - ग्रन्थ में पाश के स्थान पर नागपाश का उल्लेख है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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