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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
महामानसी का नाम १६ वी महाविद्या महामानसी से ग्रहण किया गया, पर देवी की लाक्षणिक विशेषताएं महाविद्या से भिन्न हैं।
दक्षिण भारतीय परम्परा-दिगंबर ग्रन्थ में मयूरवाहना महामानसी चतुर्भुजा है और उसकी ऊपरी भुजाओं में बी (डाट) एवं चक्र और निचली में अभय-एवं-कटक मुद्राएं वर्णित हैं । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में मकरवाहना यक्षी के करों में खडग, खेटक. शक्ति एवं पाश के प्रदर्शन का निर्देश है। यक्ष-यक्षी-लक्षण में उत्तर भारतीय दिर अनुरूप मयूरवाहना यक्षी को फल, खड्ग, चक्र एवं वरदमुद्रा से युक्त निरूपित किया गया है।'
मूर्ति-परम्परा
___ यक्षी की दो स्वतन्त्र मूर्तियां मिली हैं। ये मूर्तियां देवगढ़ (मन्दिर १२, ८६२ ई०) एवं बारभुजी गुफा के यक्षी समूहों में उत्कीर्ण हैं। देवगढ़ में शान्तिनाथ के साथ 'श्रीयादेवी' नाम की चतुर्भुजा यक्षी आमूर्तित है। यक्षी का वाहन महिष है और उसके हाथों में खड्ग, चक्र, खेटक एवं परशु प्रदर्शित हैं। यक्षी का निरूपण श्वेतांबर परम्परा की छठी महाविद्या नरदत्ता (या पुरुषदत्ता) से प्रभावित है । बारभुजी गुफा की मूर्ति में यक्षी द्विभुजा है और ध्यानमुद्रा में पद्म पर विराजमान है । यक्षी के दोनों हाथों में सनाल पद्म प्रदर्शित हैं। शीर्षभाग में देवी का अभिषेक करती हुई दो गज आकृतियां भी उत्कीर्ण हैं। यक्षी का निरूपण पूर्णतः अभिषेकलक्ष्मी से प्रभावित है।
. शान्तिनाथ की मूर्तियों में ल० आठवीं शती ई० में यक्षी का अंकन प्रारम्भ हुआ। गुजरात एवं राजस्थान के श्वेतांबर स्थलों की जिन-संयुक्त मूर्तियों में यक्षी के रूप में सर्वदा अम्बिका निरूपित है। पर देवगढ़, ग्यारसपुर एवं खजुराहो जैसे दिगंबर स्थलों की मूर्तियों (१०वीं-१२वीं शती ई०) में स्वतन्त्र लक्षणों वाली यक्षी आमूर्तित है ।" मालादेवी मन्दिर (ग्यारसपुर, म०प्र०) की मूर्ति (१०वीं शती ई०) में स्वतन्त्र रूपवाली यक्षी चतुर्भजा है और उसके करों में अभयाक्ष, पद्म, पद्म एवं मातुलिंग प्रदर्शित हैं। देवगढ़ की तीन मूर्तियों में सामान्य लक्षणों वाली द्विभुजा यक्षी के हाथों में अभयमुद्रा एवं कलश (या फल) हैं । देवगढ़ के मन्दिर १२ को पश्चिमी चहारदीवारी की दो मूर्तियों (११ वीं शती ई०) में चतुर्भुजा यक्षी के करों में अभयमुद्रा, पद्म, पुस्तक एवं जलपात्र प्रदर्शित हैं। खजुराहो के मन्दिर १ की मूर्ति में चतुर्भुजा यक्षी अभयमुद्रा, चक्राकार सनाल पद्म, पद्म-पुस्तक एवं जलपात्र से युक्त है। खजुराहो के स्थानीय संग्रहालय की दो मूर्तियों में सामान्य लक्षणोंवाली द्विभुजा यक्षी का दाहिना हाथ अभयमुद्रा में तथा बायां कार्मुक धारण किये हुए या जानु पर स्थित है।
विश्लेषण
उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि शिल्प में यक्षी का पारम्परिक स्वरूप में अंकन नहीं किया गया । स्वतन्त्र लक्षणों वाली यक्षी के निरूपण का प्रयास भी केवल दिगंबर स्थलों की ही कुछ जिन-संयुक्त मूर्तियों में दृष्टिगत होता है। ऐसी मूर्तियां देवगढ़, ग्यारसपुर एवं खजुराहो से मिली हैं। स्वतन्त्र लक्षणों वाली चतुर्भुजा यक्षी के दो हाथों में दो पद्म, या एक में पद्म और दूसरे में पुस्तक प्रदर्शित हैं। दिगंबर स्थलों पर यक्षी के करों में पद्म एवं पुस्तक का प्रदर्शन श्वेतांबर प्रभाव है।
१ रामचन्द्रन, टी०एन०, पू०नि०, पृ० २०६ २ जि०इ०दे०, पृ० १०३, १०६ ३ महाविद्या नरदत्ता का वाहन महिष है और उसके मुख्य आयुध खड्ग एवं खेटक हैं । ४ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३२ ५ मथुरा एवं इलाहाबाद संग्रहालयों तथा देवगढ़ (मन्दिर ८) की तीन मूर्तियों में यक्षी अम्बिका है ।
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