________________
१८६
[ जैन प्रतिमाविज्ञान दिगंबर परम्परा–प्रतिष्ठासारसंग्रह में वृषभारूढ़ा काली के करों में घण्टा, त्रिशूल, फल एवं वरदमुद्रा के प्रदर्शन का निर्देश है ।' अन्य ग्रन्थों में त्रिशूल के स्थान पर शूल मिलता है । अपराजितपृच्छा में महिषवाहना काली का अष्टभुज रूप में ध्यान किया गया है। काली के हाथों में त्रिशूल, पाश, अंकुश, धनुष, बाण, चक्र, अभयमुद्रा एवं वरदमुद्रा का वर्णन है । दिगंबर परम्परा की वृषभवाहना यक्षी काली का स्वरूप हिन्दू काली और शिवा से प्रभावित प्रतीत होता है।
दक्षिण भारतीय परम्परा-दिगंबर परम्परा में वृषभवाहना यक्षी के करों में त्रिशूल, घण्टा, अभयमुद्रा एवं कटकमुद्रा का उल्लेख है । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में चतुर्भुजा यक्षी का वाहन मयूर है। यक्षी को दो भुजाएं अंजलिमुद्रा में हैं और शेष दो में वरदमुद्रा एवं अक्षमाला हैं। यक्ष-यक्षी-लक्षण में वृषभारूढ़ा यक्षी के हाथों में घण्टा, त्रिशूल एवं वरदमुद्रा का वर्णन है। दक्षिण भारतीय दिगंबर परम्परा एवं यक्ष-यक्षी-लक्षण के विवरण उत्तर भारतीय दिगंबर परम्परा के समान हैं। मूर्ति-परम्परा
यक्षी की दो स्वतन्त्र मूर्तियां देवगढ़ (मन्दिर १२, ८६२ ई०) एवं बारभुजी गुफा के सामूहिक अंकनों में उत्कीर्ण हैं। इन मूर्तियों में यक्षी के साथ पारम्परिक विशेषताएं नहीं प्रदर्शित हैं। देवगढ़ में सुपावं की चतुर्भुजा यक्षी मयूरवाहि (नी) नामवाली है। मयूरवाहन से युक्त यक्षी के करों में व्याख्यानमुद्रा, चामर-पद्म, पुस्तक एवं शंख प्रदर्शित हैं। यक्षी का निरूपण स्पष्टत: सरस्वती से प्रभावित है। बारभुजी गुफा की मूर्ति में यक्षी अष्टभुजा है और उसका वाहन सम्भवतः मयूर है । यक्षी के दक्षिण करों में वरदमुद्रा, फलों से भरा पात्र, शूल (?) एवं खड्ग और वाम में खेटक, शंख, मुद्गर (?) एवं शूल प्रदर्शित हैं।
जिन-संयुक्त मूर्तियों में भी यक्षी का पारम्परिक या कोई स्वतन्त्र स्वरूप नहीं परिलक्षित होता है। देवगढ़ (मन्दिर ४) एवं राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जे ९३५) की दो सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों में तीन सपंफणों के छत्रोंवाली द्विभुज यक्षी के हाथों में पुष्प (या पद्म) और कलश प्रदर्शित हैं। कुम्भारिया के महावीर एवं नेमिनाथ मन्दिरों की दो मूतियों में यक्षी अम्बिका है। पर विमलवसही की देवकुलिका १९ की मूर्ति में सुपार्श्व के साथ यक्षी रूप में पद्मावती निरूपित है।'
(८) विजय (या श्याम) यक्ष शास्त्रीय परम्परा
विजय (या श्याम) जिन चन्द्रप्रभ का यक्ष है। श्वेतांबर परम्परा में द्विभुज विजय का वाहन हंस है और दिगंबर परम्परा में चतुर्भुज श्याम का वाहन कपोत है।
१ सितगोवृषभारूढा कालिदेवी चतुर्मुजा। __घण्टात्रिशूलसंयुक्तफलहस्तावरप्रदा ॥प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.३० २ सिता गोवृषगा घण्टां फलशूलवरावृताम् । प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१६१; प्रतिष्ठातिलकम् ७.७ पृ० ३४२ ३ कृष्णाऽष्टबाहुस्त्रिशूलपाशांकुशधनुःशरा ।
चक्राभयवरदाश्च महिषस्था च कालिका ॥ अपराजितपृच्छा २२१.२१ ४ राव, टी० ए० गोपीनाथ, एलिमेन्ट्स ऑव हिन्दू आइकानोग्राफी, खं० १, भाग २, वाराणसी, १९७१ (पु०म०),
पृ०३६६ ५ रामचन्द्रन, टी०एन०, पू०नि०, पृ० २००
६ जि०इ०दे०, पृ० १०५ ७ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १२१ ८ तीन सर्पफणों के छत्र वाली यक्षी का वाहन सम्भवतः कुक्कुट-सपं है और उसके करों में वरदमुद्रा, अंकुश, पद्म
एवं फल प्रदर्शित हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.