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[ जैन प्रतिमाविज्ञान में अद्धन्दु, परशु, फल, खड्ग, इढ़ी एवं वरदमुद्रा के प्रदर्शन का निर्देश है ।' प्रतिष्ठातिलकम् में इढ़ी के स्थान पर पिंडी का उल्लेख है। अपराजितपच्छा में षड्भ्रजा यक्षी के दो हाथों में खड़ग और इढ़ी के स्थान पर क्रमशः अभयमुद्रा एवं पद्म दिये गये हैं।
दक्षिण भारतीय परम्परा-दिगंबर परम्परा में हंसवाहना यक्षी षड्भुजा है और उसकी दक्षिण भुजाओं में परशु, खड्ग एवं अभयमुद्रा और वाम में पाश, चक्र एवं कटकमुद्रा का उल्लेख है। अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में अश्ववाहना यक्षी द्विभुजा है जिसकी भुजाओं में वरदमुद्रा एवं पद्य दिये गये हैं। यक्ष-यक्षी-लक्षण में पक्षीवाहना यक्षी षड्भुजा है तथा प्रतिष्ठासारसंग्रह के समान, उसकी केवल चार भुजाओं के आयुध-अर्धचन्द्र, परशु, फल एवं वरदमुद्रा-वर्णित हैं। मूर्ति-परम्परा
(क) स्वतन्त्र मूर्तियां-यक्षी की केवल दो मूर्तियां (११वीं-१२वीं शती ई०) मिली हैं। ये मूर्तियां उड़ीसा के नवमुनि एवं बारभुजी गुफाओं में हैं। इनमें पारम्परिक विशेषताएं नहीं प्रदर्शित हैं। नवमुनि गुफा की मूर्ति में पद्मासन पर ललितमुद्रा में विराजमान द्विभुजा यक्षी जटामुकुट और हाथों में अभयमुद्रा एवं सनाल पद्म से युक्त है।" बारभुजी गुफा की मूर्ति में यक्षी चतुर्भुजा है। उसका वाहन (कोई पशु) आसन के नीचे उत्कीर्ण है। यक्षी के दो अवशिष्ट हाथों में वरदमुद्रा और अक्षमाला हैं ।
(ख) जिन-संयुक्त मूर्तियां-देवगढ़ एवं खजुराहो की सम्भवनाथ की मूर्तियों (११वीं-१२वीं शती ई०) में यक्षी आमूर्तित है । इनमें यक्षी द्विभुजा और सामान्य लक्षणों वाली है। द्विभुजा यक्षी के करों में अभयमुद्रा एवं फल (या पद्म, या खड्ग या कलश) प्रदर्शित हैं। देवगढ़ की एक मूर्ति में यक्षी चतुर्भुजा भी है जिसके तीन सुरक्षित हाथों में वरदमुद्रा, पद्म एवं कलश हैं। सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट है कि मूतं अंकनों में यक्षी का कोई पारम्परिक या स्वतन्त्र स्वरूप नियत नहीं हो सका था
(४) ईश्वर (या यक्षेश्वर) यक्ष शास्त्रीय परम्परा
ईश्वर (या यक्षेश्वर) जिन अभिनन्दन का यक्ष है। श्वेतांबर परम्परा में यक्ष को ईश्वर और यक्षेश्वर नामों से, पर दिगंबर परम्परा में केवल यक्षेश्वर नाम से ही सम्बोधित किया गया है। दोनों परम्पराओं में यक्ष चतुर्भुज है और उसका वाहन गज है।
श्वेतांबर परम्परा-निर्वाणकलिका में गजारूढ़ ईश्वर के दाहिने हाथों में फल और अक्षमाला तथा बायें में नकुल और अंकुश के प्रदर्शन का निर्देश है। अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं आयुधों के उल्लेख हैं।'
१ पक्षिस्थार्धेन्दुपरशुफलासीढीवरैः सिता । "चतुश्चापशतोच्चाहद्भक्ता प्रज्ञप्तिरिच्यते ॥ प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१५८ २ ""कृपाणपिण्डीवरमादधानाम् । प्रतिष्ठातिलकम् ७.३, पृ० ३४१ ३ अभयवरदफलचन्द्रां परशुरुत्पलम् ॥ अपराजितपृच्छा २२१.१७ ४ रामचन्द्रन, टी० एन०, पू०नि०, पृ० १९९ ५ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १२८ ६ वही, पृ० १३० ७ तत्तीर्थोत्पन्नमीश्वरयक्ष श्यामवर्णं गजवाहनं चतुर्भुजं मातुलिंगाक्षसूत्रयुतदक्षिणपाणि नकुलांकुशान्वितवामपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका १८.४ ८ त्रिश०पु०च० ३.२.१५९-६०; मन्त्राधिराजकल्प ३.२९; आचारदिनकर ३४, पृ० १७४
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