________________
यक्ष-यक्षी-प्रतिमाविज्ञान ]
उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि देवगढ़ में प्रत्येक जिन के साथ एक यक्षी को कल्पना तो की गई, परन्तु उनकी प्रतिमा लाक्षणिक विशेषताओं के उस समय (९वीं शती ई०) तक निश्चित न हो पाने के कारण अम्बिका के अतिरिक्त अन्य यक्षियों के निरूपण में महाविद्याओं एवं सरस्वती के लाक्षणिक स्वरूपों के अनुकरण किये गये और कुछ में सामान्य लक्षणों वाली यक्षियों को आमूर्तित किया गया। उपर्युक्त धारणा की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि देवगढ़ की ही स्वतन्त्र जिन मूर्तियों में अम्बिका के अतिरिक्त मन्दिर १२ की अन्य किसी भी यक्षी को नहीं उत्कीर्ण किया गया है।
नामों के आधार पर देवगढ़ के मन्दिर १२ की यक्षियों को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। पहले वर्ग में वे पांच यक्षियां हैं जिन्हें पारम्परिक जिनों के साथ प्रदर्शित किया गया है। इनमें ऋषभ, अनन्त, अर, अरिष्टनेमि एवं पार्श्व की चक्रेश्वरी, अनन्तवीर्या,', तारादेवी,२ अम्बायिका एवं पद्मावती यक्षियां हैं। दूसरे वर्ग में ऐसी चार यक्षियां हैं जिन्हें अपने पारम्परिक जिनों के साथ नहीं प्रदर्शित किया गया है। इनमें जालामालिनी, अपराजिता (वर्धमान), सिधइ (मुनिसुव्रत) एवं बहुरूपी (पुष्पदन्त) यक्षियां हैं। जैन परम्परा के अनुसार ज्वालामालिनी चन्द्रप्रभ की, अपराजिता मल्लि की. सिधइ (या सिद्धायिका) महावीर की एवं बहुरूपी (बहुरूपिणी) मुनिसुव्रत की यक्षियां हैं। तीसरे वर्ग में ऐसी यक्षियां हैं जिनके नाम किसी जैन ग्रन्थ में नहीं प्राप्त होते। ये भगवती सरस्वती (अभिनन्दन), मयूरवाहि (सुपार्श्व), हिमादेवी (मल्लि), श्रीयादेवी (शान्ति), सुरक्षिता (धर्म), सुलक्षणा (विमल), अभौगरतिण (वासुपूज्य), वहनि (श्रेयांश), श्रीयादेवी (शीतल), सुमालिनी (चन्द्रप्रभ) एवं सुलोचना (पद्मप्रभ) यक्षियां हैं ।
पतियानदाई मन्दिर (सतना, म० प्र०) से ग्यारहवीं शती ई० की एक अम्बिका मूर्ति मिली है, जिसके परिकर में अम्बिका के अतिरिक्त अन्य २३ यक्षियों की चतुर्भुज मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । यह मूर्ति सम्प्रति इलाहाबाद संग्रहालय (२९३) में है (चित्र ५३)।५ अम्बिका एवं परिकर की सभी २३ यक्षियां त्रिभंग में खड़ी हैं। आकृतियों के नीचे उनके नाम अभिलिखित हैं। परिकर में दिगंबर जिन मतियां भी बनी हैं। सिंहवाहना अम्बिका की चारो भुजाएं खण्डित हैं। देवी के बायें और दाहिने पाश्वों की यक्षियों के नीचे क्रमशः प्रजापती और वनसंकला उत्कीर्ण हैं। समीप ही दो अन्य यक्षियां निरूपित हैं जिनके नाम स्पष्ट नहीं हैं। पर एक यक्षी के हाथ में चक्र एवं दूसरी के साथ गजवाहन बने हैं। ये निश्चित ही चक्रेश्वरी और रोहिणी की मतियां हैं। बायीं ओर (ऊपर से नीचे) की यक्षियों की आकृतियों के नीचे क्रमशः जया, अनन्तमती, वैरोटा, गौरी, महाकाली, काली और पृषदधी नाम उत्कीर्ण हैं । दाहिनी ओर (ऊपर से नीचे) अपराजिता, महामनुसि, अनन्तमती, गान्धारी, मनसी, जालमालिनी और मनुजा नाम की यक्षियां हैं। मूर्ति के ऊपरी भाग में (बायें से दाहिने) क्रमशः बहुरूपिणी, चामुण्डा, सरसती, पदुमावती और विजया नाम की यक्षियां आमूर्तित हैं। यक्षियों के नाम सामान्यतः तिलोयपण्णत्ति की सूची से मेल खाते हैं। परिकर की २३ यक्षियां पारम्परिक क्रम में नहीं निरूपित हैं। उनकी लाक्षणिक विशेषताएं भी बहुत स्पष्ट नहीं है। अनन्तनाथ की यक्षी अनन्तमती का नाम दो बार उत्कीर्ण है। इसके अतिरिक्त प्रजापति, जया, पूषदधी, मनुजा एवं सरस्वती नाम ऐसे हैं जिनका उल्लेख कहीं भी यक्षियों के रूप में नहीं प्राप्त होता। इसके अतिरिक्त २४ यक्षियों की पारम्परिक सूची में से प्रज्ञप्ति, मनोवेगा, मानवी एवं सिद्धायिका के नाम इस मूर्ति में नहीं प्राप्त होते ।
१ दिगंबर परम्परा में यक्षी का नाम अनन्तमती है। २ दिगंबर ग्रन्थ में अर की यक्षी का नाम तारावती है। ३ जिन का नाम स्पष्ट नहीं है। दिगंबर परम्परा में ज्वालामालिनी चन्द्रप्रभ की यक्षी है। देवगढ़ समह में चन्द्रप्रभ
के साथ सुमालिनी उत्कीर्ण है। ४ साहनी ने इसे अभोगरोहिणी पढ़ा है-जि०इ००, पृ० १०३ ५ कनिंघम, ए०, आकिअलाजिकल सर्वे ऑव इण्डिया रिपोर्ट, वर्ष १८७३-७५, खं०९, पृ० ३१-३३; चन्द्र, प्रमोद, स्टोन स्कल्पचर इन दि एलाहाबाद म्यूजियम, बम्बई, १९७०, पृ० १६२
२१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org