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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
हैं ( चित्र ४४-४६, ५०, ५१, ५३) । साथ ही रोहिणी', पद्मावती' एवं सिद्धायिका की मी कुछ मूर्तियां प्राप्त हुई हैं (चित्र ४७, ५५, ५७) । चक्रेश्वरी एवं पद्मावती की मूर्तियों में सर्वाधिक विकास दृष्टिगत होता है । अम्बिका का स्वरूप यक्षों में केवल सर्वानुभूति एवं धरणेन्द्र की ही कुछ स्वतन्त्र मूर्तियां मिली सामूहिक चित्रण के भी दो उदाहरण क्रमश: देवगढ़ ( मन्दिर १२) एवं
अन्य क्षेत्रों के समान इस क्षेत्र में भी स्थिर रहा । हैं ( चित्र ४९ ) । इस क्षेत्र में २४ यक्षियों के पतियानदाई (अम्बिका मूर्ति) से मिले हैं ।
बिहार - उड़ीसा - बंगाल — इस क्षेत्र की जिन मूर्तियों में यक्ष यक्षी युगलों के चित्रण की परम्परा लोकप्रिय नहीं थी । केवल दो उदाहरणों में यक्ष-यक्षी निरूपित हैं ।" उड़ीसा में नवमुनि एवं बारभुजी गुफाओं ( ११वीं - १२वीं शती ई० ) की क्रमशः सात और चौबीस जिन मूर्तियों में जिनों के नीचे उनकी यक्षियां निरूपित हैं (चित्र ५९ ) । चक्रेश्वरी एवं अम्बिका की कुछ स्वतन्त्र मूर्तियां भी मिली हैं ।
सामूहिक अंकन – जैन ग्रन्थों में नवीं शती ई० तक यक्ष एवं यक्षियों की केवल सूची ही तैयार थी । तथापि सूची के आधार पर ही नवीं शती ई० में शिल्प में २४ यक्षियों को मूर्त अभिव्यक्ति प्रदान की गई । २४ यक्षियों के सामूहिक अंकनों के हमें तीन उदाहरण क्रमश: देवगढ़ ( मन्दिर १२, उ० प्र०), पतियानदाई (अम्बिका मूर्ति, म० प्र०) एवं बारभुजी गुफा (उड़ीसा) से मिले हैं । ये तीनों ही दिगंबर स्थल हैं । यक्षों के सामूहिक चित्रण का सम्भवत: कोई प्रयास नहीं किया गया। यहां यक्षियों के सामूहिक अंकनों की सामान्य विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख किया जायगा ।
देवगढ़ के मन्दिर १२ (शान्तिनाथ मन्दिर, ८६२ई०) ६ की भित्ति पर का २४ यक्षियों का सामूहिक चित्रण इस प्रकार का प्राचीनतम ज्ञात उदाहरण है (चित्र ४८ ) । सभी यक्षियां त्रिभंग में खड़ी हैं और उनके शीर्ष भाग में सम्बन्धित जिनों की छोटी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं ।" सभी उदाहरणों में जिनों एवं यक्षियों के नाम उनकी आकृतियों के नीचे अभिलिखित हैं । अम्बिका के अतिरिक्त अन्य किसी यक्षी के निरूपण में जैन ग्रन्थों के निर्देशों का पालन नहीं किया गया है । देवगढ़ के मन्दिर १२ की यक्षी मूर्तियों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि देवगढ़ में नवीं शतीई० तक केवल अम्बिका का ही स्वरूप नियत सका था । सात यक्षियों के निरूपण में पूर्व परम्परा में प्रचलित अप्रतिचक्रा, वज्रशृंखला, नरदत्ता, महाकाली, वेरोट्या, अच्छुता एवं महामानसी महाविद्याओं की लाक्षणिक विशेषताओं के पूर्ण या आंशिक अनुकरण हैं, पर उनके नाम परिवर्तित कर दिये गये हैं । यक्षियों पर महाविद्याओं के प्रभाव का निर्धारण बप्पभट्टि की चतुर्विंशतिका के विवरणों एवं ओसिया के महावीर मन्दिर की महाविद्या मूर्तियों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर किया गया है । देवगढ़ समूह की अन्य यक्षियां विशिष्टतारहित एवं सामान्य लक्षणों वाली हैं । इन द्विभुज यक्षियों की एक भुजा में चामर, पुष्प एवं कलश में से कोई एक सामग्री प्रदर्शित है और दूसरी भुजा या तो नीचे लटकती या फिर जानु पर स्थित है । समान विवरणों वाली दो चतुर्भुज मूर्तियों में यक्षी की दो भुजाओं में कलश प्रदर्शित हैं और अन्य या तो पुष्प हैं या फिर एक में पुष्प है और दूसरा जानु पर स्थित है । सुपार्श्व के साथ काली के स्थान पर 'मयूरवाहि' नाम की चतुर्भुजा यक्षी उत्कीर्ण है । मयूरवाहिनी यक्षी की भुजा में पुस्तक प्रदर्शित है जो स्पष्टतः सरस्वती के स्वरूप का अनुकरण है ।
१ देवगढ़ एवं ग्यारसपुर ( मालादेवी मन्दिर) ३ खजुराहो एवं देवगढ़
५ एक मूर्ति बंगाल और दूसरी बिहार से मिली हैं ।
६ मन्दिर १२ शान्तिनाथ को समर्पित है ।
२ खजुराहो, देवगढ़, मथुरा एवं शहडोल
४ खजुराहो, देवगढ़ एवं ग्यारसपुर (मालादेवी मन्दिर )
७ मन्दिर १२ के अर्धमण्डप के एक स्तम्भ पर संवत् ९१९ (८६२ ई०) का एक लेख है । पर अर्धमण्डप निश्चित ही मूल मन्दिर के कुछ बाद का निर्माण है, अतः मूल मन्दिर ( मन्दिर १२ ) को ८६२ ई० के कुछ पहले (ल० ८४३ ई०) का निर्माण स्वीकार किया जा सकता है— द्रष्टव्य, जि०इ० दे०, पृ० ३६
८ जि०इ० दे०, पृ० ९८- ११२
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